________________ 206 योगबिंदु भी कोई अपवादिक मुक्ति प्राप्त कर सकता है परन्तु सम्यक्दर्शन के बिना चाहे कितना ही तप या क्रिया करे, फिर भी वह संसार में भटकता है। हृदय में भावों की वृद्धि का अर्थ है सम्यक् दर्शन की स्थिरता-जिसका सम्यक्दर्शन स्थिर है उसके सभी अनुष्ठान स्वर्णघट जैसे हैं // 351 // एवं तु वर्तमानोऽयं, चारित्री जायते ततः / पल्योपमपृथक्वेन विनिवृत्तेन कर्मणः // 352 // अर्थ : इस प्रकार वर्तन करता हुआ यह (भिन्नग्रंथी जीव) ग्रंथीभेद होने के पश्चात् (जब उसके) दो से नव पल्योपम प्रमाण स्थिति वाले कर्म (चारित्रमोहनीयादि) निवृत्त हो जाते हैं (तब वह) चारित्री (देशविरति चारित्री) होता है // 352 // विवेचन : ग्रंथीभेद होने के पश्चात् क्षयोपशमभाव से शुभ परिणाम की धारा को अनुक्रम से बढ़ाता हुआ और ऐसे शुभपरिणामों से शुभ अनुष्ठानों को करता हुआ, भिन्नग्रंथी जीव जब दो से नव पल्योपम प्रमाण स्थिति वाले चारित्र मोहनीयादि कर्मों को खपा देता है अथवा वे कर्म जब निवृत्त हो जाते हैं तब वह जीव देशविरति चारित्र को प्राप्त करता है। पल्योपम कर्मों की स्थिति का एक माप है जो समुद्र से छोटा होता है। पृथकत्व का अर्थ है दो से नौ तक। यह जैन पारिभाषिक शब्द है / जैन सिद्धान्तानुसार जब जीव, दो से नव पल्योपम प्रमाण स्थिति वाले कर्मों का नाश करता है, तब उसे पांचवा गुणस्थान कहो या देशविरति चारित्र कहो, प्राप्त होता है। सर्वविरति चारित्र तो संख्यात सागरोपम प्रमाण स्थिति वाले कर्म निवृत होने पर होता है // 352 // लिङ्गं मार्गानुसार्येष, श्राद्धः प्रज्ञापनाप्रियः / गुणरागी महासत्त्वः, सच्छक्यारम्भसङ्गतः // 353 // अर्थ : वह (चारित्री-देशविरतिचारित्री) मार्गानुसारी, श्रद्धावान्, गुणवान पुरुषों की प्रज्ञापना में प्रीति रखने वाला, गुणानुरागी, प्रशस्त पुरुषार्थी, शक्ति अनुसार सत्प्रवृत्ति करने वाला होता है। (ये चारित्री के चिह्न हैं, लक्षण है) // 353 // विवेचन : देशविरति चारित्र को धारण करने वाले भव्यात्मा में कौन-कौन से गुण पाये जाते हैं ? देशविरति चारित्री की पहचान क्या है ? तो कहते हैं कि देशविरति चारित्री में सबसे पहले मार्गानुसारी के 35 गुण जो बताये हैं वे होते हैं; दूसरा वह परम श्रद्धालु होता है, सत्य तत्त्वों में विश्वास रखने वाला होता है; तीसरा-आगम ग्रंथों में महापुरुषों ने, गणधरों ने, तीर्थंकरदेवों ने जो प्ररूपित किया है उस पर प्रीति रखने वाला होता है; चौथा वह हमेशा गुणानुरागी ही होता है। उसे