________________ योगबिंदु 205 विवेचन : संसारचक्र का सानुबंध अर्थात् कारण जिसमें है, ऐसा जो मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माय, लोभ की चौकड़ी तथा हास्य, रति, अरति, भय, शोक, दुगंच्छा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद रूप जो मोहनीय कर्मदल का समूह अनादि काल से प्रवाहरूप से जीव के साथ एकमेक हो गया है, वह मोहरूप मल सद्गुरु के उपदेश से, आत्मवीर्य और शुभ परिणाम की धारा से ग्रंथीभेद से शुद्ध होता है, क्षय होता है, उपशान्त होता है / देवपूजा, गुरुभक्ति, व्रत, पच्चखाण, देशविरति, सर्वविरतिरूप सच्चारित्र तथा तप, जप, ध्यान, समाधि आदि सर्व अनुष्ठान शुभफल के हेतु ही होते हैं / तात्पर्य है कि ऐसे अनुष्ठानों में इस प्रकार की विशिष्टता होती है कि संसार चक्र में भटकाने योग्य ऐसे कर्मदलों का क्षयोपशम होने से और ग्रंथीभेद होने से शुभफल के ही हेतु होते हैं, इससे अन्यथा नहीं होते // 350 // भाववृद्धिरतोऽवश्यं, सानुबंधं शुभोदयम् / गीयतेऽन्यैरपि ह्येतत्, सुवर्णघटसन्निभम् // 351 // अर्थ : इससे (क्षयोपशमभाव से) अवश्यमेव शुद्ध भावों में वृद्धि होती है (ऐसे उत्तमभावों से किया गया) शुभानुष्ठान सानुबंध शुभोदय अर्थात् सतत प्रशस्त फल देने वाला होता है, अन्य मतावलम्बी भी इसे स्वर्णघट के समान बताते हैं / / 351 // _ विवेचन : मिथ्यात्वमोहनीयादि कर्मों के क्षयोपशम से भव्यात्माओं के हृदय में उत्तम-शुद्ध भावों की वृद्धि होती है / उत्तमोत्तम भावनाओं से हृदय सभर होता है और ऐसे उत्कृष्ट भावों से किये गये शुभानुष्ठान-परमात्मा की पूजा, चैत्यवन्दन, जिनस्तुति, सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध, साधु के पंचमहाव्रत, श्रावक के अणुव्रत, आठ प्रवचन माता की पालना, गुरु के पास शास्त्र श्रवण आदि जो भी अनुष्ठान श्रद्धा और वीर्योल्लासपूर्वक किये जाते हैं, अवश्य शुभभावों की वृद्धि करने वाले होते हैं / महर्षि पतञ्जलि और कपिल आदि अन्य मतावलम्बी भी इसे सानुबंध शुभोदय अर्थात् जिसकी परम्परा बीच में टूटती नहीं, ऐसे सतत प्रशस्तफल को देने वाला कहते हैं / अर्थात् शुभभावों को जन्म देते हैं इस प्रकार की शुद्ध, शुद्धतर, शुद्धतम, शुभ-शुभतर, शुभतम प्रशस्त फलदायी परम्परा चलती रहती है। ऐसे अनुष्ठानों को उन्होंने स्वर्णघट की उपमा दी है जैसे स्वर्ण घट टूटे-फूटे फिर भी स्वर्ण का स्वर्ण ही रहता है। उसकी कीमत में टूटने से कोई अन्तर नहीं पड़ता। ऐसे ही शुभभावों से किये गये अनुष्ठान कभी कषायोदय से उपहत हो जाय फिर भी सर्वदा शुभफल को ही देने वाले होते हैं / क्योंकि कहा है : दंसणभट्ठो भठ्ठो दंसणभस्स नत्थि निव्वाणं / चरणरहिआ सिज्झन्ति, दंसणेण बिना न हि // अर्थात् दर्शन से भ्रष्ट को भ्रष्ट माना है, परन्तु चारित्र से भ्रष्ट को नहीं, क्योंकि चारित्र बिना