________________ योगबिंदु 201 है इसलिये उसे संसार में कोई रुचि नहीं रहती / मोक्ष के जो अजरामरत्व, निरामयत्व, अविनाशित्व तथा रोग, शोक, पीड़ा के अत्यन्त अभावरूप गुणों की जानकारी होने से, मुक्ति में अत्यन्त प्रीतिरूप सम्यक्दर्शन उसे होता है, और वही मोक्ष का मुख्य हेतु हैं / संक्षेप में ग्रंथीभेद होने पर मिथ्यात्व मोहनीय - जो तत्त्व से विपरीत है और महादुःख का बीज है उसका नाश हो जाता है और मोक्षसम्बन्धी गुणों का ज्ञान हो जाने से मुक्ति पर बेहद प्रीति हो जाती है, वही सम्यक्दर्शन है और मोक्ष का मुख्य हेतु है // 342 // एतत्त्यागाप्तिसिद्धयर्थमन्यथा तदभावतः / अस्यौचित्यानुसारित्वमलमिष्टार्थसाधनम् // 343 / / अर्थ : इस (भिन्नग्रंथी) को इनकी (संसार और मोक्ष की क्रमशः) त्याग और प्राप्तिरूप सिद्धि के लिये औचित्यानुसारित्व ही उत्तमोत्तम पर्याप्त इष्टार्थ का साधन है, अन्यथा (औचित्यानुसारित्व के बिना) उसका अभाव सिद्ध हो जाता है (अर्थात् संसार और मोक्ष का क्रमशः त्याग और प्राप्ति का ही अभाव हो जाय) // 343 / / विवेचन : ग्रंथीभेद होने पर जीवात्मा का विवेकज्ञान जाग्रत हो जाता है / उसी विवेक ज्ञान को ही यहाँ औचित्यानुसारित्व कहा है क्योंकि विवेकज्ञान होने पर ही व्यक्ति उचित-अनुचित कृत्य आदि का भेद करके, उचितप्रवृत्ति का अनुसरण कर सकता है। जब यह गुण विकसित होता है, तभी संसार का त्याग और मोक्ष की प्राप्तिरूप सिद्धि होती है। उसका इष्टार्थ जो मोक्ष या आध्यात्मिक विकास है, उसे सिद्ध करने के लिये औचित्यानुसारित्व को पर्याप्त साधन बताया है, जो युक्तियुक्त है, क्योंकि उस गुण के बिना संसार का त्याग और मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती // 343 // औचित्यं भावतो यत्र, तत्रायं संप्रवर्तते / उपदेशं विनाऽप्युच्चैरन्तस्तेनैव चोदितः // 344 // अर्थ : यह (भिन्नग्रंथी जीवात्मा) वही पर प्रवृत्ति करता है जहाँ पारमार्थिक औचित्य हो, (उस उचित प्रवृत्ति को वह) बिना उपदेश के, शुद्ध अन्तःकरण से, ग्रंथीभेद से उत्पन्न बलवान पुरुषार्थ की प्रेरणा से प्रेरित होकर करता है // 344 // विवेचन : जो भव्यात्मा परमार्थभाव को यथास्वरूप में समझ चुका है और जिसका ग्रंथी भेद हो चुका है वह हमेशा उचित प्रवृत्ति ही करता है / अर्थात् जो मोक्षमार्ग के अनुकूल हो और शाश्वत सुख की साधक हो ऐसी देवपूजा, गुरुभक्ति, सुपात्रदान, साधर्मिकवात्सल्य, सर्वत्र मैत्री, प्रमोद, माध्यस्थ्य, करुणा भावना, पंचमहाव्रत, गुणव्रत, ध्यान, समाधि आदि शुभ और शुद्ध प्रवृत्ति ही करता है। अन्यत्र जो प्रवृत्ति मोक्षसाधक न हो वहाँ पर वह प्रवृत्त नहीं होता / ऐसी उचित प्रवृत्ति में प्रवृत्त