________________ 200 योगबिंदु का त्याग करना, वेश्यागमन त्याग आदि सुन्दर आचरणों से युक्त होती है इसलिये वह हमेशा सत्कार्यों में, परमशुद्ध, पवित्र कार्यों में ही प्रवृत्त होता है। क्योंकि कर्ममात्र का क्षय होने से सत्प्रवृत्ति का बाधक कारण वहाँ पर कोई रहता नहीं / तात्पर्य यह है कि ग्रंथीभेद होने पर जीव का मानसिक स्तर इतना ऊँचा हो जाता है कि उसका झुकाव हमेशा सत्प्रवृत्ति की ओर ही रहता है / हमेशा वह उचितप्रवृत्ति का ही चुनाव करता है // 340 // संसारादस्य निर्वेदस्तथोच्चैः पारमार्थिकः / संज्ञानचक्षुषा सम्यक्, तन्नैर्गुण्योपलब्धितः // 341 // अर्थ : सद् ज्ञानचक्षु से संसार की असारता को सम्यक् तौर पर जानकर, भिन्नग्रंथी आत्मा को संसार से उत्तम प्रकार का पारमार्थिक भाववैराग्य पैदा होता है // 341 // विवेचन : ग्रंथी का भेद होने पर जीवात्मा का निर्मल ज्ञानचक्षु खुल जाते हैं / जब निर्मल विवेकचक्षु खुलत हैं तो भव्यात्मा को संसार के प्रति अरुचि पैदा होती है क्योंकि संसार उसे आधि, व्याधि, उपाधि, जन्म, जरा, मरण, भय, रोग, शोक और क्लेशों से पीड़ित नजर आता है। इस प्रकार नर, नारक, तिर्यञ्चों को दुःखी और पीड़ित देखकर, संसार की निर्गुणता-असारता को जानकर, उसे सर्वोत्तम ऐसा पारमार्थिक अर्थात् तात्पर्य अकृत्रिम-स्वाभाविक भाववैराग्य प्रकट होता है। संसार में कहीं भी उसकी दृष्टि ठहरती नहीं / सर्वत्र उसे असारता के ही दर्शन होते हैं, इसलिये उसके हृदय में एक ही तड़प रह जाती है कि मैं ऐसे दुःख ग्रस्त संसार से कब छुटूं ? इस संसार-समुद्र को कैसे शीघ्र पार करु ? उसका वैराग्य कृत्रिम नहीं होता / शुद्ध अन्तःकरण से निकला हुआ भाववैराग्य होता है, जो उसे मोक्ष के समीप ले जाता है / तात्पर्य यह है कि जब ज्ञानचक्षु खुलते हैं तो संसार का यथार्थ स्वरूप सामने आता है और जब संसार का यथार्थ स्वरूप जान लिया तो भाववैराग्य पैदा होना जरुरी और स्वाभाविक है // 341 // मुक्तौ दृढानुरागश्च, तथातद्गुणसिद्धितः / विपर्ययो महादुःखबीजनाशाच्च तत्त्वतः // 342 // अर्थ : मुक्ति पर दृढ़ अनुराग (भिन्नग्रंथी को) मोक्ष सम्बन्धी गुणों की जानकारी से और तत्त्व से विपरीत, महादुःख के बीजरूप मिथ्यात्वमोहादि के नाश होने से होता है // 342 // विवेचन : संसार के भिन्न-भिन्न पर्यायों में भटकाने वाला तथा उनके नाना दुःखों का मूल कारण अगर कोई है, तो वह मिथ्यात्व मोहनीय है / तत्त्व जो मोक्ष है, उसके विपरीत (ले जाने वाला) और महादुःख का बीजरूप, मिथ्यात्वमोहनीय का जोर ग्रंथीभेद होने पर बहुत कम हो जाता