________________ योगबिंदु 199 विवेचन : निश्चयनय की अपेक्षा से दैव और पुरुषार्थ दोनों अपने-अपने कार्यकाल में प्रधान है; इसलिये दोनों समान बल वाले हैं / और व्यवहारनय की अपेक्षा से दैव और पुरुषार्थ फलोत्पत्तिकाल में परस्पर सापेक्ष, अन्योऽन्याश्रित और बाध्य-बाधक भाव वाले हैं अथवा प्रधानगौण भाववाले हैं, इसलिये तुल्य हैं / इसलिये सूक्ष्म बुद्धि से विचारने पर दोनों का तुल्यबल न्यायपुरस्सर है - युक्तिपूर्वक सिद्ध है // 338 / / एवं पुरुषकारेण, ग्रन्थिभेदोऽपि संगतः / तदूर्ध्वं बाध्यते दैवं, प्रायोऽयं तु विजृम्भते // 339 // अर्थ : इस प्रकार पुरुषार्थ से ग्रंथिभेद भी संगत सिद्ध हुआ, (क्योंकि ग्रंथीभेद के पश्चात्काल में) बाद में प्रायः दैव प्रतिहत होता है और पुरुषार्थ तो फलता-फूलता है // 339 // विवेचन : शास्त्र में जो कहा है कि 'चरमावर्तकाल में पुरुषार्थ से कर्मग्रंथी का भेद हो जाता है' वह शास्त्रवचन भी इस प्रकार युक्ति पूर्वक घटित होता है क्योंकि अन्तिमपुद्गलपरावर्तन काल में जीव की परिणामधारा और भावना में विलक्षण-अपूर्व परिवर्तन होता है, और पुरुषार्थ का बल बढ़ते-बढ़ते इतना बढ़ जाता है कि वह कर्मों की ग्रंथिओं को भेदकर, कर्मों की गाढ़ शक्ति को उपहत-नष्ट कर देता है / उस समय कर्म पुरुषार्थ से बाध्य हो जाते हैं / ग्रंथीभेद के पश्चात् तो ऐसा समय आता है कि पुरुषार्थ तो प्रायः सत्ताधीश होकर, सर्वत्र अपने प्रभाव से सबको प्रभावित करता है और कर्म तो मृतप्रायः हो जाता है। इसीलिये ग्रंथकार ने कहा है कि पुरुषार्थ प्रायः फलता फूलता है और दैव पुरुषार्थ से हत हो जाता है / ग्रंथीभेद के पश्चात् कर्म और पुरुषार्थ की ऐसी स्थिति होती है // 339 // अस्यौचित्यानुसारित्वात्, प्रवृत्ति सती भवेत् / सत्प्रवृत्तिश्च नियमाद्, ध्रुवः कर्मक्षयो यतः // 340 // अर्थ : इसकी (भिन्नग्रंथी आत्मा की) प्रवृत्ति औचित्यानुसारित्व, (उचितानुचित में से उचित प्रवृत्ति को अनुसरण करने का स्वभाव उस समय बंध जाने के कारण) असत्प्रवृत्ति नहीं होती; निश्चित ही सत्प्रवृत्ति होती है और इसी कारण कर्म का क्षय भी निश्चित ही है // 340 // विवेचन : ग्रंथीभेद होने पर आत्मा उस स्थिति पर पहुंच जाती है कि जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति में कौन सी उचित ? कौन सी अनुचित है ? अर्थात् कृत्य-अकृत्य, पेय-अपेय, हेय-उपादेय, भक्ष्य-अभक्ष्य आदि विषयों या परिस्थितियों के उपस्थित होने पर विवेकबुद्धि से उसकी परीक्षा करके, सतत सत्प्रवृत्ति - उचित प्रवृत्ति करने का ही उसका स्वभाव बन जाता है / विवेक दीपक जगमगा उठता है, इसलिये उसकी कोई भी प्रवृत्ति असत्प्रवृत्ति, अशुद्ध, अशुभ, आस्रवमय, पापमयी नहीं होती। निश्चित ही उसकी बुद्धि व्रत, नियम, शौच, त्याग, प्रभुपूजा, गुरुसेवा, प्राणीदया, सत्य बोलना, चोरी