________________ 198 योगबिंदु है और जब कर्म प्रधान होता है पुरुषार्थ असफल और गौण हो जाता है। जो बलवान है वह दुर्बल को दबा देता है, इस न्याय से दोनों का प्रधान-गौण भाव अथवा कार्य-कारणभाव अपेक्षा से न्याययुक्त है // 336 / / एवं च चरमावर्ते, परमार्थेन बाध्यते / दैवं पुरुषकारेण, प्रायशो व्यत्ययोऽन्यदा // 337 // अर्थ : इस प्रकार चरमपुद्गलपरावर्तन काल में पारमार्थिक उत्कृष्ट पुरुषार्थ से प्रायः दैव बाधित होता है और अन्य काल में (अचरमावर्तकाल में) इससे विपरीत होता है (पुरुषार्थ कर्म से बाधित होता है) // 337 // विवेचन : कर्म और पुरुषार्थ का परस्पर बाध्य-बाधक स्वभाव सिद्ध होने पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि किस समय कौन बलवान और कौन दुर्बल होता है ? ग्रंथकार यह बताते है कि चरम पुद्गलपरावर्तन काल में आत्मा के ऊपर कर्मों का जोर कम हो जाता है; कर्म प्रायः निर्बल हो जाते हैं और पुरुषार्थ की शक्ति बढ़ जाती है; इसलिये इस काल में उत्कृष्ट बलवान पुरुषार्थ से कर्म हत हो जाते हैं, प्रायः बाधित हो जाते हैं। 'प्रायः' शब्द से ग्रंथकार यह सूचित करना चाहते हैं कि यद्यपि इस काल में पुरुषार्थ, कर्म को बाध्य करता है परन्तु कभी-कभी पुरुषार्थ भी कर्म से बाधित हो जाता है। जैसे नन्दिषेण का दृष्टान्त है। उसके भोगावली कर्म बलवान और निकाचित थे; भोग किये बिना, उनसे छुटकारा पाना असम्भव था / परम पुरुषार्थरूप कठिन तप-जप करने पर भी उसे आखिर में चारित्र छोड़कर, वेश्या के घर पर रहना पड़ा / सो यहाँ चरमावर्तकाल में भी कर्म से पुरुषार्थ हत हो गया / अतः कभी-कभी इसके विपरीत अर्थात् कर्म से पुरुषार्थ नष्ट हो जाता है। परन्तु सामान्य नियम यह है कि चरमावर्त में पुरुषार्थ से कर्म बाध्य होता है, और पुरुषार्थ बाधक होता है और अचरमावर्त में आत्मा पर कर्मों का प्राबल्य होने से प्रायः कर्म से पुरुषार्थ बाध्य होता है और कर्म बाधक बन जाते हैं / तात्पर्य यह है कि चरमावर्त में कर्म का जोर घट जाता है, इसलिये पुरुषार्थ सफल हो जाता है और अचरमावर्त में कर्म बलवान होते हैं इसलिये वहाँ पुरुषार्थ हार जाता है // 337 // तुल्यत्वमेवमनयोर्व्यवहाराद्यपेक्षया / सूक्ष्मबुद्ध्याऽवगन्तव्यं, न्यायशास्त्राविरोधतः // 338 // अर्थ : इस प्रकार व्यवहारनय और निश्चयनय की अपेक्षा से, सूक्ष्म बुद्धि से विचारने पर, इन दोनों (कर्म और पुरुषार्थ) का तुल्यबल, युक्ति-न्याय पुरस्सर है। (अर्थात् न्यायशास्त्र का भी इसमें विरोध नहीं होता) // 338 //