________________ योगबिंदु 197 अर्थ : यदि ऐसा कहो कि शुभाशुभ कर्म से यह (भिन्न-भिन्न) (कर्मका) स्वभाव है। इससे क्या सिद्ध हुआ? (तो कहते हैं) भाव (पुरुषार्थ) से कर्म की उत्पत्ति और कर्म से भाव (पुरुषार्थ) की उत्पत्ति होती है // 335 // विवेचन : पूर्व में भिन्न-भिन्न निमित्तों से तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के भावों से जो भी शुभाशुभ कर्म बांधा हो; उन कर्मों से पैदा होने वाले भिन्न-भिन्न अध्यवसायों द्वारा किये गये दान, शील, तप आदि की प्रवृत्ति बाहर से तुल्य होने पर कर्म की भिन्नता अर्थात् फल में भेद पड़ता है, वह फलभेद परिणाम-भाव से पड़ता है। परन्तु कर्म तो तुल्य था अतः फल में भी तुल्यसदृशता आनी चाहिये / नहीं आती, इसलिये कहना पड़ता है, उसमें रहा हुआ जो भावरूप परिणाम है वह वैसा विभिन्न फल देने में समर्थ है इसलिये परिणाम-भाव रूपी पुरुषार्थ उसमें रहा हुआ है; सो इस प्रकार के स्वरूप वाला वह पुरुषार्थ है / कर्म में जो भावरूप से विद्यमान है वह पुरुषार्थ है। इसलिये दोनों का सहयोग इष्ट फल को सिद्ध करता है / अतः पुरुषार्थ कर्म से और कर्म पुरुषार्थ से सफल होता है / इस प्रकार कर्म और पुरुषार्थ सापेक्षधर्म वाले हैं। इसमें परवादी पूछता है कि इसमें इष्ट कौन सी वस्तु की सिद्धि हुई, तो कर्म और पुरुषार्थ की विचारणा में यही सिद्ध हुआ कि पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों से शुभाशुभ भाव पैदा होता है और शुभाशुभ भावों से शुभाशुभ कर्म बनते हैं, इस प्रकार परम्परा से वे एक दूसरे के कारण और कार्य होते हैं / ऐसी ही उनकी अनादिकालीन स्थिति है // 335 // तत्त्वं पुनर्द्वयस्यापि, तत्स्वभावत्वसंस्थितौ / भवत्येवमिदं न्यायात् तत्प्राधान्याद्यपेक्षया // 336 // अर्थ : इस प्रकार तत्त्व यह निकला कि दोनों (कर्म और पुरुषार्थ) के अपने-अपने स्वभाव में स्थिरता होने पर भी, एक दूसरे की प्रधानता और गौणता की अपेक्षा से यह (परस्पर बाध्यबाधक स्वभाव) न्याय पुरस्सर है // 336 / / विवेचन : कर्म और पुरुषार्थ सम्बन्धी इतनी विचारणा के पश्चात् तत्त्व यह सिद्ध हुआ कि कर्म और पुरुषार्थ सापेक्षभावी और बाध्य-बाधक स्वभाव वाले हैं / लेकिन उसका तात्पर्य यह नहीं कि दोनों में से एक का अस्तित्व है और दूसरे का नहीं, क्योंकि कर्म और पुरुषार्थ दोनों अपना निजी स्वतन्त्र नियत स्वभाव रखते हैं / दोनों की अपनी-अलग अलग प्रवृत्ति होती है। वे अपने ही स्वभाव में प्रवृत्ति करते है, दूसरे के स्वभाव-स्वरूप को धारण नहीं करते / अर्थात् कर्म पुरुषार्थ नहीं बनता और पुरुषार्थ कर्मरूप में नहीं होता / इस प्रकार अपने-अपने स्वभाव में निश्चित-नियत होने पर भी परस्पर-एक दूसरे की प्रधानता और गौणता के कारण बाध्य-बाधक भाव वाले हैं। अर्थात् अपना स्वतन्त्र स्वभाव रखने पर भी जब पुरुषार्थ बलवान होता है तो कर्म गौण हो जाता