________________ 196 योगबिंदु अर्थ : काष्ठादि से ही प्रतिमा की निष्पत्ति मानने पर निश्चित ही उसकी (प्रतिमा की) प्राप्ति सर्वत्र होगी और योग्य की अयोग्यता (सिद्ध) होगी, जो लोक प्रसिद्ध नहीं // 333 // विवेचन : यदि कोई ऐसा माने कि कर्म और पुरुषार्थ के परस्पर सापेक्षभाव को मानने की जरूरत नहीं / काष्ट स्वयं अपनी योग्यता से ही प्रतिमा का निर्माण कर लेगा। तो ऐसा मानना उचित नहीं, क्योंकि अगर सापेक्षभाव न स्वीकारें और ऐसा माने कि काष्ठ ही अपनी योग्यता से प्रतिमा बना सकेगा तो सर्वत्र जहाँ-जहाँ भी काष्ट का टुकड़ा होगा; सभी की प्रतिमा बन जानी चाहिये। क्योंकि उसमें योग्यता विद्यमान है, उसकी योग्यता का निषेध नहीं किया जा सकता। परन्तु सर्वत्र ऐसी प्रतिमा निष्पत्ति नहीं होती, तो योग्य काष्ठ में भी अयोग्यता स्वीकारनी पड़ेगी, जो लोक प्रसिद्ध नहीं है / अतः लोकप्रसिद्धि से विरुद्ध-अनुभव विरुद्ध, काष्ट से स्वतः प्रतिमा निष्पत्ति स्वीकारना अनुचित है / इसलिये योग्यता के साथ पुरुषार्थ भी जरूरी है // 333 // कर्मणोऽप्येतदाक्षेपे, दानादौ भावभेदतः / फलभेदः कथं नु स्यात्, तथा शास्त्रादिसङ्गतः // 334 // अर्थ : कर्म के उपर भी ऐसा आक्षेप करने पर अर्थात् कर्म में पुरुषार्थ उत्पन्न करने की शक्ति स्वीकारने पर दानादि में भावभेद से जो शास्त्रसम्मत फलभेद होता है वह कैसे घटित हो ? // 334 // विवेचन : इसी प्रकार यदि अकेले कर्म-प्रारब्ध से ही पुरुषार्थ से उत्पन्न फल की उत्पत्ति होती हो अर्थात् फलोत्पत्ति में केवल कर्म को ही निमित्त माने; पुरुषार्थ को न माने तो दान, शील, तप आदि में भावना की तारतम्यता से जो लोकप्रतिष्ठ और शास्त्रसम्मत फलभेद होता है वह कैसे घटित होगा ? अर्थात् नहीं घटित होता / तात्पर्य यह है कि एक ही शुभ या अशुभ कार्य को तीन व्यक्ति करते हैं, परन्तु तीनों को उनकी भावना की उत्कृष्टता या निकृष्टता की तारतमश्रेणी के अनुसार अलग-अलग फल मिलता है। यह जो फलों में भेद पड़ता है वह व्यक्ति के अध्यवसाय, भावनारूप पुरुषार्थ मय परिणाम की धारा विशेष के उपर निर्भर है / ऐसा लोक में भी देखा जाता है और शास्त्र में भी वर्णित है / "पुरुषार्थ के बिना अकेला कर्म फल देने में समर्थ है" ऐसा मानने पर फल की विचित्रता घटती नहीं और एकरूपतादोष आता है, जो लोक और शास्त्र विरुद्ध है। अगर कोई कहे कि शुभाशुभ कर्म के कारण फल में भेद हो सकता है; तो वह शुभाशुभ कर्म भी पूर्वजन्म के पुरुषार्थ से ही पैदा होते हैं / इसलिये इनका मूल तो पुरुषार्थ ही है। उसके बिना अकेला कर्म फल देने में असमर्थ है // 334 // शुभात् ततस्त्वसौ भावो, हन्तायं तत्स्वभावभाक् / एवं किमत्र सिद्धं स्यात्, तत एवास्त्वतो ह्यदः // 335 //