________________ योगबिंदु 193 कर्मणा कर्ममात्रस्य, नोपघातादि तत्त्वतः / स्वव्यापारगतत्वे तु, तस्यैतदपि युज्यते // 328 // अर्थ : वस्तुतः केवल कर्म से कर्ममात्र का विनाश-उन्मूलनादि, उपघात-अनुग्रहादि नहीं हो सकता / आत्मा के व्यापार रूप पुरुषार्थ का सम्बंध होने पर ही इसका (कर्म का) यह परस्पर उपघातादि घटित हो सकता है // 328 / / विवेचन : अकेले कर्म में ऐसा सामर्थ्य नहीं है कि वह अकेला किसी को अनुग्रहीत कर सके या निग्रहीत कर सके, क्योंकि वह जड़ है-असहाय है। अकेला कर्म पूर्वसञ्चित कर्म का नाश नहीं कर सकता, जीव व्यापाररूप पुरुषार्थ उस के साथ में जरूरी है / जीव के पुरुषार्थ का सम्बंध होने पर ही कर्म का जो परस्पर सापेक्षत्वरूप सम्बंध है अर्थात् इनका जो बाध्य-बाधक भाव (जैसा कि श्लोक 305 में बताया है) सम्भव है, और (श्लोक 307) में जो फल सिद्धि कही है वह इनके इस बाध्य-बाधक भाव की ही सिद्धि समझनी चाहिये / तात्पर्य यह है कि अकेले कर्म से पूर्वसञ्चित कर्म का निर्मूलन हो नहीं सकता उसमें जीव व्यापाररूप पुरुषार्थ जरूरी है। दोनों का सापेक्षत्व सम्बंध है। पुरुषार्थ बिना कर्म अधूरा है और कर्म बिना पुरुषार्थ लंगड़ा है, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं // 328 // उभयोस्तत्स्वभावत्वे, तत्तत्कालाद्यपेक्षया / बाध्यबाधकभावः स्यात्, सम्यग्न्यायाविरोधतः // 329 // अर्थ : दोनों (कर्म और पुरुषार्थ) का अपना निजी स्वभाव होने पर भी कालादि की अपेक्षा से बिना विरोध के बाध्य-बाधक भाव युक्ति पूर्वक घटित होता है // 329 // विवेचन : दैव और पुरुषार्थ दोनों आत्मगत वस्तुएँ हैं, आत्मा के तथाप्रकार के योग से उत्पन्न हुई है, फिर भी दोनों का स्वभाव भिन्न-भिन्न है / कर्म पुद्गल का स्वभाव, उदयकाल प्राप्त होने पर आत्मा के शुभाशुभ कर्म-विपाकों के फल रूप-सुख-दुःख देता है, और पुरुषार्थ का स्वभाव, आत्मवीर्य के साथ शुभाशुभ-विचारानुसार कर्म का घात-नाश करने में या नया कर्म बान्धने में सहायक होता है। इस प्रकार भिन्न स्वभावी होने पर भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अनुकूलता के अनुसार जहाँ कर्म का उदय बलवान हो, वहाँ पुरुषार्थ बाधित हो जाता है, अर्थात् फल देने में असमर्थ हो जाता है और जहा पुरुषार्थ बलवान हो और दैव दुर्बल हो वहा दैव बाधित हो जाता है और पुरुषार्थ बाधक बन जाता है अतः बिना किसी विरोध के युक्ति पूर्वक दोनों का परस्पर बाध्यबाधक भाव घटित हो जाता है। अतः यहाँ एकान्त कदाग्रह का त्याग करना चाहिये, सत्यअन्वेषक दृष्टि रखनी चाहिये // 329 //