________________ 192 योगबिंदु अर्थ : क्योंकि यह (कर्म) जीव के निजी पुरुषार्थ रूप क्रिया-व्यापार के बिना अपना फल देने में समर्थ नहीं; इसलिये दोनों (दैव और पुरुषार्थ) का यहाँ पूर्वोक्त लक्षण (अन्योऽन्याश्रितम्) ही तात्त्विक-वास्तविक है // 326 // विवेचन : पूर्व में दैव और पुरुषार्थ दोनों का जो लक्षण बताया है कि दोनों अन्योऽन्याश्रित स्वभाव वाले हैं, वही युक्त है क्योंकि कर्म और पुरुषार्थ दोनों एक दूसरे के उपकारक हैं / कर्म के बिना, पुरुषार्थ अकेला अपना फल नहीं दे सकता और कर्म भी अकेला कार्यसिद्धि में सफल नहीं हो सकता, उसे भी पुरुषार्थ कर्म की अपेक्षा रहती है / इसलिये पूर्वोक्त लक्षण ही उपयुक्त है // 326 // दैवं पुरुषकारेण, दुर्बलं ह्युपहन्यते / दैवेन चैषोऽपीत्येतन्नान्यथा चोपपद्यते // 327 // अर्थ : क्योंकि दुर्बल दैव (बलवान) पुरुषार्थ से उपहत-नष्ट हो जाता है और पुरुषार्थ भी (अगर दुर्बल हो तो) (बलवान) दैव से नष्ट हो जाता है, इससे अन्यथा नहीं घटित नहीं होता / अथवा क्योंकि दुर्बल दैव बलवान पुरुषार्थ से उपहत होता है और पुरुषार्थ भी बलवान दैव से उपहत होता है, इससे अन्यथा नहीं घटित नहीं होता // 327 // विवेचन : अगर 'दैव' दुर्बल कमजोर हो तो बलवान पुरुषार्थ से नष्ट हो जाता है / जैसे उपदेशपद में यह बात प्रसिद्ध है कि ज्ञानगर्भित एक महान मन्त्री ने, जब उनके कुटुम्बी-स्वजन को अशुभ कर्मोदय के योग से, वध-फांसी का प्रसंग उपस्थित हुआ तब उन्होंने अपनी उत्तमबुद्धि द्वारा किये गये महान् पुरुषार्थ द्वारा उस अशुभ कर्मोदय के बल को हटाकर या दबाकर, स्वयं को और अपने कुटुम्बियों को वध-फांसी के प्रसंग में से बचा लिया / इस प्रकार यहाँ दुर्बल दैव, महान् पुरुषार्थ से उपहत हुआ और इसी प्रकार जब दैव बलवान हो तो वह पुरुषार्थ को असफल बना देता है नष्ट कर देता है। जब द्वारका नगरी का अशुभकर्मोदय योग से जलने का प्रसंग उपस्थित हुआ, तब बलभद्र और श्रीकृष्ण जैसे समर्थ महापुरुषों का अथाह पुरुषार्थ होने पर भी वे उसे नहीं बचा सके / इस प्रकार जब कर्म बलवान होता है तब पुरुषार्थ भी हतप्रायः हो जाता है / इस प्रकार पुरुषार्थ भी कर्म की बलवान सत्ता के नीचे नष्ट हो जाता है और जब पुरुषार्थ का बल बढ़े तो कर्म उससे नष्ट हो जाता है। इस प्रकार फल देने में दोनों तुल्य बल वाले नहीं होते या कर्म बलवान होता है या पुरुषार्थ बलवान होता है। ऐसे ही वस्तुतत्त्व घटित होता है, इसके विपरीत नहीं (अन्यथा में अनेक दोषापत्ति है) // 327 //