________________ योगबिंदु 191 वह इस लोक में तो फल को देता ही है व दूसरे जन्म में भी वह अपना शुभाशुभ फल दिखाये बिना नहीं रहता // 323 // अन्योन्यसंश्रयावेवं, द्वावप्येतौ विचक्षणैः / उक्तावन्यैस्तु कर्मैव, केवलं कालभेदतः // 324 // अर्थ : इस प्रकार इन दोनों (दैव और पुरुषार्थ) को विद्वानों ने परस्पराश्रित माना है; अन्य (सांख्यवादियों) ने कालभेद से केवल कर्म को ही माना है // 324 // विवेचन : इस प्रकार व्यवहार नय से विद्वानों ने दैव और पुरुषार्थ को अन्योऽन्याश्रित माना है। दोनों का परस्पर आश्रय-आश्रयीभाव है। कर्म पुरुषार्थ की सहायता से फल देता है और पुरुषार्थ, कर्म की सहायता से फल देता है / अर्थात् कर्म से जिस फल की प्राप्ति होने वाली हो उसमें पुरुषार्थ निमित्त कारण होता है और पुरुषार्थ से होने वाली कार्य सिद्धि में कर्म निमित्त कारण होता है / परन्तु अन्य सांख्यवादी कालभेद से केवल कर्म को ही फल प्राप्ति में निमित्त कारण मानते हैं / वे मानते हैं कि जैसे जैन लोग मोक्ष प्राप्ति में काल की परिपक्वता को मानते हैं, वैसे ही सर्वकार्यों में काल के अनुसार पुरुषार्थ और कर्म अनुकूल या प्रतिकूल रूप से बाध्य-बाधक-भाव को प्राप्त होते हैं। अर्थात् किसी समय कर्म बलवान, कभी पुरुषार्थ बलवान होता है वह सब काल के कारण होता है। कालानुसार ही कर्म फल देता है और काल के अनुसार ही कर्म नाश भी हो जाता है॥३२४|| दैवमात्मकृतं विद्यात् कर्म यत् पौर्वदेहिकम् / स्मृतः पुरुषकारस्तु, क्रियते यदिहापरम् // 325 // अर्थ : स्वयंकृत पौर्वदेहिक कर्म को 'दैव' जानना चाहिये और इस भव में जो किया व्यापार किया जाता है वह पुरुषार्थ कहा जाता है // 325 // विवेचन : पूर्वदेह में अर्थात् पूर्वजन्म में जीवात्मा स्वयं मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभयोगों से अथवा शुभ अध्यवसायों द्वारा जो-जो भी अशुभ या शुभ कर्म बान्धता है उसे 'दैव' समझना चाहिये अथवा कई उसे अदृष्ट भी कहते हैं। और इस भव में - इस जन्म में जो भी क्रिया व्यापार किया जाता है, प्रयत्न किया जाता है वह पुरुषार्थ कहा जाता है। संक्षेप में पूर्वभव में आत्मा द्वारा किया गया शुभा-शुभ प्रयत्न 'दैव' है, और इस भव में जो आत्मा का सत्प्रयत्न है वह पुरुषार्थ कहा जाता है // 325 / / नेदमात्मक्रियाभावे, यतः स्वफलसाधकम् / अतः पूर्वोक्तमेवेह, लक्षणं तात्त्विकं तयोः // 326 //