________________ 190 योगबिंदु अर्थ : (कभी-कभी किसी को) साधारण पुरुषार्थ भी फल देने वाला सिद्ध होता है और (दूसरे को) महान् प्रयत्न-पुरुषार्थ भी निष्फल सिद्ध होता है इसलिये (इसमें मुख्य कारण) जो नाना प्रकार का शुभाशुभ कर्म है, उसी को 'दैव' कहा जाता है // 322 / / विवेचन : संसार में कर्म की यह विचित्रता जीवन में पद-पद पर अनुभव की जाती है। एक व्यक्ति बहुत साधारण पुरुषार्थ करता है परन्तु सफलता उसके पद चूमती है, अल्प प्रयत्न भी उसे फल देने वाला होता है / जब कि दूसरा व्यक्ति महान् परिश्रम करता है, बुद्धि और शक्ति का उपयोग करता है, दिन-रात एक कर देता है परन्तु फिर भी वह अपने क्षेत्र में सफल नहीं होता ऋ] एक व्यक्ति अपनी वाणी द्वारा लोकप्रिय बनता है और दूसरे का बोलना भी अच्छा नहीं लगता / संसार की इस विचित्रता को देखकर, अनुभव होता है कि इसमें जरूर कोई अदृश्य कारण विद्यमान है / और उस अदृश्य कारण को ही 'दैव' या 'कर्म' नाम से पुकारा जाता है जो नाना प्रकार का है और शुभ-अशुभ रूप है। इस प्रकार ऐसी स्थिति में पुरुषार्थ से 'दैव' अधिक बलवान हो जाता है। जातिचातुर्यहीनोऽपि कर्माण्यभ्युदयात् हे। क्षणाद्रकोऽपि राजा स्यात्, छिन्नछत्रदिगन्तरः // रंक-भिक्षुक जैसी निम्न स्थिति में उत्पन्न होने वाला, बुद्धि, चातुर्य, रूप, गुण हीन होने पर भी, हाथ, पैर आदि अंग पूर्ण और सुन्दर न होने पर भी; पुण्यकर्म के शुभोदय से छत्र, चामर आदि राज्यचिह्न की विभूति से युक्त, दस दिशाओं में जिसकी आज्ञा प्रवर्त रही है, ऐसे बल से युक्त चक्रवर्ती राजा के समान बन जाता है / इसमें बाह्य कोई प्रयत्न पुरुषार्थ तो कुछ दिखाई नहीं देता। इसलिये यहाँ कर्म का ही बलवान प्रभाव मानना चाहिये / अतः कभी-कभी कर्म-दैव ही अतिबलवान हो जाता है // 322 // एवं पुरुषकारस्तु, व्यापारबहुलस्तथा / फलहेतुर्नियोगेन, ज्ञेयो जन्मान्तरेऽपि हि // 323 // अर्थ : इसी प्रकार पुरुषार्थ भी व्यापार बहुल (कर्म की अपेक्षा से अधिक बलवान) होता है और जन्मान्तर में भी निश्चित ही वह फल का हेतु होता है / अर्थात् इसी प्रकार पुरुषार्थ भी व्यापार बहुल (नाना प्रकार का) है और जन्मान्तर में निश्चित ही फल देता है // 323 // विवेचन : जैसे पूर्व में कर्म की बलवत्ता बताई है, वैसे ही यहाँ पुरुषार्थ को भी कर्म की अपेक्षा से बलवान बताया है। अर्थात् कर्म-दैव की भाँति कभी-कभी पुरुषार्थ भी बलवान बन जाता है और दैव कमजोर रह जाता है। कभी-कभी पुरुषार्थ तो इतना बलवान हो जाता है कि