________________ योगबिंदु 189 निश्चयनय को मानने वाले तत्त्वज्ञ पुरुषों का कहना है / परन्तु जो तत्त्वज्ञ पण्डित व्यवहारनय का आलम्बन लेते हैं वे व्यवहारनय की दृष्टि से कर्म और पुरुषार्थ दोनों को चित्र स्वभाववाला अर्थात् भिन्न-भिन्न स्वभाववाला होने पर भी परस्पर आश्रित मानते हैं / तात्पर्य कि भिन्न- भिन्न स्वभाव होने पर भी एक दूसरे की सहायता से ही कोई भी कार्य सिद्ध करते हैं, अकेले नहीं / कहने का तात्पर्य यह है-जब पुरुषार्थ बलवान हो तब दैव की सत्ता होने पर भी पुरुषार्थ ही फल साधक होता है, दैव कमजोर होकर वहीं पर दबा रहता है और जब दैव बलवान हो तब पुरुषार्थ होने पर भी दैव ही अपना प्रभाव दिखाता है पुरुषार्थ असफल हो जाता है इस प्रकार अपनी स्वतन्त्र भिन्न-भिन्न कार्यशक्ति रखते हुये भी परस्पर एक दूसरे पर निर्भर हैं / सहायक है // 320 // न भवस्थस्य यत् कर्म विना व्यापारसम्भवः / न च व्यापारशून्यस्य फलं स्यात् कर्मणोऽपि हि // 321 // अर्थ : भवस्थ-संसारी जीव को कर्म के बिना व्यापार सम्भव नहीं और व्यापारशून्य को कर्म का फल भी सम्भव नहीं है // 321 // विवेचन : संसारी जीव को अनेक प्रकार के सुख-दुःखों का अनुभव होता है / उसमें पुरुषार्थ और कर्म की ही मुख्यता और गौणता रही हुई हैं, क्योंकि जीव जैसा भी शुभाशुभ कर्म बांधता है, वह वैसे पुरुषार्थ-अर्थात् क्रियाकारित्वरूप व्यापार के बिना नहीं बांध सकता / मन से, वचन से, काया से क्रियारूप जो भी पुरुष प्रयत्न होता है; उसी से शुभाशुभ कर्म बनते हैं, और पूर्वसञ्चित कर्मों के फल की प्राप्ति भी उसी प्रकार की बुद्धि और व्यापार बिना सम्भव नहीं। इसीलिये श्री रामचन्द्रजी जैसे समर्थ महापुरुष असम्भव स्वर्ण मृग के पीछे भागते हैं क्योंकि अशुभकर्म का उदय था / कहा भी है "विनाशकाले विपरीत बुद्धिः' अगर उनका अशुभ कर्मोदय न होता तो ऐसा न होता / लेकिन जब भाग्य विपरीत हो जाता है तब पुरुषार्थ करने पर भी अनुकूल फल की सिद्धि नहीं होती। अतः व्यवहारनय फल प्राप्ति में अकेले कर्म को अथवा अकेले पुरुषार्थ को कारणभूत न मानकर, परस्पर आश्रित मानता है। "एकेन चक्रेण न रथश्चलति" इसलिये फल प्राप्ति में दैव और उद्यम दोनों हेतु है / लोक में भी कर्म और पुरुषार्थ के सहयोग से फलप्राप्ति देखी जाती है। अकेला भाग्य भी कुछ नही कर सकता और अकेला पुरुषार्थ भी कुछ नही कर सकता। जब दोनों का सहयोग होता है, भाग्य भी हो और उसके अनुकूल पुरुषार्थ भी किया जाय तब ही मनुष्य को सफलता मिलती है // 321 // व्यापारमात्रात् फलदं, निष्फलं महतोऽपि च / अतो यत् कर्म तद् दैवं, चित्रं ज्ञेयं हिताहितम् // 322 //