________________ 188 योगबिंदु अर्थ : दैव और पुरुषार्थ दोनों तुल्य है, यह भी स्पष्ट है / इस प्रकार (परिणामित्वादि से) तत्त्व व्यवस्थित होने पर न्याय से यह घट जाता है // 318 // विवेचन : दैव जिसे सामान्य लोग प्रारब्ध, कर्म, नसीब, किस्मत, भाग्य आदि शब्दों से पुकारते हैं और पुरुषार्थ जो पुरुष-आत्मा का प्रयत्न है, दोनों आत्मा के ही गुणधर्म हैं। एक क्रिया रूप है तो दूसरा उसी का फल है। दोनों तुल्य बल वाले प्रत्यक्ष अनुभूत होते हैं, क्योंकि दोनों में परिणामित्वभाव रहा हुआ है। इस प्रकार दैव और पुरुषार्थ, ईश्वर और आत्मा सभी परिणामित्वभाव वाले पूर्व में व्यवस्थित रूप से सिद्ध होने पर जीवाजीवादिक सर्ववस्तु न्यायपूर्वक, द्रव्यस्वरूप से नित्य है और पर्यायरूप से अनित्य है यानि स्यादनित्यानित्य रूप है। परन्तु दूसरे प्रकार से एकान्तनित्य या एकान्त-अनित्य नहीं हो सकती क्योंकि एकान्त नित्य या अनित्य मानने से वास्तविक सिद्धि नहीं होती // 318 // दैवं नामेह तत्त्वेन, कर्मैव हि शुभाशुभम् / तथा पुरुषकारश्च, स्वव्यापारो हि सिद्धिदः // 319 // अर्थ : यहाँ शुभा-शुभ कर्म को ही वास्तव में 'दैव' नाम दिया है तथा सिद्धि-फल देने वाला जीवात्मा का स्व-व्यापार प्रयत्न ही पुरुषकार है // 319 // विवेचन : 'दैव' को चाहे कोई प्रारब्ध, कर्म, नसीब, किस्मत, भाग्य आदि नामों से पुकारेंपरन्तु पूर्वकाल में, भूतकाल में या पूर्वजन्म में जीवों ने शुभ और अशुभ अध्यवसायों द्वारा वैसी शुभ और अशुभ क्रिया करके, जो कर्म बांधा हो उसे ही 'दैव' नाम दिया जाता है। क्योंकि 'दैव' का रूढ अर्थ शुभाशुभ अथवा प्रशस्त या अप्रशस्त-कर्म ही होता है। यही लोकमान्य अर्थ लेना यहाँ उचित है। परन्तु व्युत्पत्ति जन्य अर्थ-देवता की ओर से होने वाला अनुग्रह या अपग्रह अर्थ लेना यहाँ उचित नहीं है। इसी प्रकार जीवात्मा का इष्टार्थ-विवक्षितकार्यार्थ किया जाने वाला स्वव्यापार रूप प्रयत्न ही पुरुषकार है / यहाँ दोनों का ऐसा अर्थ ही लेना चाहिये, परिकल्पित अर्थ नहीं लेना चाहिये // 319|| स्वरूपं निश्चयेनैतदनयोस्तत्त्ववेदिनः / ब्रुवते व्यवहारेण, चित्रमन्योन्यसंश्रयम् // 320 // अर्थ : तत्त्ववेत्ता दैव और पुरुषकार के स्वरूप को निश्चयनय से पूर्वोक्त प्रकार से (तुल्यबल वाले कहते हैं) और व्यवहार नय से (दोनों को) भिन्न-भिन्न और परस्पराश्रित कहते हैं // 320 // विवेचन : पूर्व में जैसा कहा है कि दैव और पुरुषार्थ दोनों सर्व प्रवृत्ति में अपने-अपने स्वभाव के अनुसार तुल्यबल वाले हैं और स्वतन्त्र रूप से अपना-अपना कार्य करते हैं ऐसा