________________ योगबिंदु 187 चश्मे का काम देता है, वह मनुष्य के विशेष जाति अनुभवों में विशेष हेतु बनता है-सहायक बनता है। जैसे चन्द्र और सूर्य ग्रहण दूर होने पर भी पारदर्शक कांच से अनुमान से राहु, सूर्य अथवा चन्द्र को कितने अंश में ग्रहण करके निगल गया है ? चन्द्रग्रहण कितने भाग में है ? आधेभाग में या चौथाई भाग में है ? इसका निश्चय होता है। वैसे ही शास्त्र द्वारा श्रद्धावंत छद्मस्थ को पारमार्थिक आत्मा, परमात्मा, कर्म आदि अगोचर वस्तुओं का निश्चय होता है / अर्थात् छद्मस्थ व्यक्ति शास्त्र में वर्णित उनके लक्षण, स्वभाव आदि का ज्ञान करके, उससे तत्त्वनिश्चय कर सकता है / ___ तात्पर्य यह है कि वैसे तो इन्द्रियगोचर विषयों का साक्षात्कार अनुभवगोचर है / कोई भी साधन अन्ध के हस्तस्पर्श जैसा वस्तु स्वरूप का बोध करा सकता है, केवल सहायक बन सकता है। वेद ने भी उपनिषदों में इसको "नेति-नेति" कहकर उसे अवर्णनीय बताया है। श्रीमद् राजचन्द्रजी ने भी अपने अपूर्व अवसर में इसी बात को बताया है : जे पद श्रीसर्वज्ञे दीर्छ ज्ञान मां, कही शक्या नहि, ते पण श्री भगवान जो / तेह स्वरूपने अन्य वाणी ते शुं कहें, अनुभवगोचर मात्र रह्यं ते ज्ञान जो / शास्त्र कुछ अंश में जरूर सहायकरूप है पूर्णज्ञान तो अनुभव गोचर है // 316 // ग्रहं सर्वत्र संत्यज्य, तद्गम्भीरेण चेतसा / शास्त्रगर्भः समालोच्यो ग्राह्यश्चेष्टार्थसङ्गतः // 317 // अर्थ : अत: सर्वत्र दुरभिनिवेष - दुराग्रह को छोड़कर, चित्त की गम्भीरता से, शास्त्र का जो सार है, वह इष्टार्थसंगत है या नहीं ? उसकी समालोचना करके, ग्रहण करना चाहिये // 317|| विवेचन : ग्रंथकार ने अन्तिम निर्णय कितना सुन्दर दिया है। सीमित अक्षरों में गागर में सागर भर दिया है। उन्होंने कहा है कि मन के सभी दुराग्रहों और पूर्वाग्रहों को छोड़कर, गम्भीर चित्त से शास्त्रों का जो सार है वह इष्टार्थसंगत अर्थात् इष्टार्थ-मोक्ष-उसके साथ संगत है या नहीं उसकी परीक्षा करके, ग्रहण करना चाहिये / तात्पर्य यह है कि सभी शास्त्रों के अन्दर जो मामूली भेदभाव हों और जो मोक्ष प्राप्ति में अवरोध पैदा करते हों, उन्हें छोड़कर, मोक्षसंगत शास्त्र के सार को ग्रहण करना चाहिये क्योंकि लक्ष्य सभी का मोक्ष है / जो मोक्ष के अनुकूल हो उसे ही महत्त्व देना चाहिये // 317 // दैवं पुरुषकारश्च तुल्यावेतदपि स्फुटम् / एवं व्यवस्थिते तत्त्वे, युज्यते न्यायतः परम् // 318 //