________________ 186 योगबिंदु से ही होती है / आत्मा के उस तथाप्रकार के सांसिद्धिक स्वभाव के बिना नियतिभाव कैसे घट सकता है ? उपर श्लोक में नियति का जो स्वरूप बताया है, वह आत्मा की भिन्न-भिन्न योग्यता के आधार पर ही नियत होता है, उसके बिना नहीं हो सकता / इसलिये सभी पदार्थों में सांसिद्धिक तथाप्रकार के सहज स्वभाव को ही मुख्य हेतु मानना उचित है, अथवा आत्मज्ञानी योगी ही इस विषय को अपनी दिव्यदृष्टि से यथार्थ जानते हैं, क्योंकि जो इन्द्रियों से प्रत्यक्ष न हो सके, ऐसे इन्द्रिय परोक्ष विषय में हमारे जैसों का कदाग्रह करना व्यर्थ हैं // 314 // अस्थानं रूपमन्धस्य, यथा सन्निश्चयं प्रति / तथैवातीन्द्रियं वस्तु, छद्मस्थस्यापि तत्त्वतः // 315 // अर्थ : जैसे अन्ध का रूपनिश्चय व्यर्थ है, वैसे ही छद्मस्थ के लिये अतीन्द्रियवस्तु का तत्त्वनिश्चय है // 315 / / विवेचन : जो आँख से देख नहीं सकता, ऐसा अन्ध व्यक्ति, यह लाल है, यह पीला है, यह हरा या सफेद है, इसका निश्चय नहीं कर सकता क्योंकि उसके पास आख ही नहीं है / इसलिये, उसके लिये प्रयत्न करना व्यर्थ है। आँख वाला ही रूप का निश्चय कर सकता हैं क्योंकि आँख का विषय रूप है। इसी प्रकार हमारे जैसे छद्मस्थ, दिव्य दृष्टि से हीन व्यक्ति, जिनके पास इन्द्रियों से परोक्ष ऐसे अगोचर विषयों को जानने की शक्ति नहीं; केवल मात्र इन्द्रियगोचर पदार्थों को ही देखने और जानने का अभिमान रखते हैं; वे इन्द्रिय अगोचर आत्मा, परमात्मा, कर्म आदि पदार्थों का तत्त्व निश्चय कैसे कर सकते हैं ? अर्थात् जैसे अन्ध व्यक्ति को रूप का बोध नहीं हो सकता वैसे ही छद्मस्थ व्यक्ति को इन्द्रिय अगोचर पदार्थों का वास्तविक-तात्त्विक निश्चय नहीं हो सकता / इसलिये ऐसे विषयों में आप्त-वचन प्रमाण मानना चाहिये // 315 // हस्तस्पर्शसमं शास्त्रं, तत एव कथञ्चन / अत्र तन्निश्चयोऽपि स्यात्, तथाचन्द्रोपरागवत् // 316 // अर्थ : शास्त्र अन्धव्यक्ति के हस्त स्पर्श जैसा है, शास्त्र से ही छद्मस्थ व्यक्ति को (अगोचरअतीन्द्रिय विषयों का) निश्चय चन्द्रग्रहणवत् (कुछ अंशों में) होता है // 316 / / विवेचन : "हस्तस्पर्शेन वस्तूपलब्धतुल्यम्" हाथ के स्पर्श से वस्तु उपलब्ध तुल्य होती है / जैसे अन्धव्यक्ति को हाथ के स्पर्श से वस्तुओं का बोध कुछ अंशों में हो जाता है, कि इस वस्तु का यह आकार है, इतनी भारी अथवा हल्की है; कोमल है या कठिन है / वैसे ही इन्द्रिय और मन से जो जानी नहीं जा सकती; ऐसी आत्मा, कर्म, ईश्वर आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का कुछ अंश में निश्चय, छद्मस्थ को शास्त्र द्वारा हो जाता है / शास्त्र जो अतीन्द्रिय पदार्थों को जानने में