________________ 184 योगबिंदु जीवात्मा के व्यापार के अनुसार संयुक्त और वियुक्त होने की क्रियारूप कारणत्व होने से पारिणामिकता की सिद्धि होती है, अतः सर्ववस्तु की सिद्धि में तथाप्रकार की द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अनुकूलता भी जरूरी है / ऐसे आत्मा, ईश्वर, कर्मरूप-प्रधान और काल आदि का पारिणामिक भाव मानना चाहिये, क्योंकि जगत में काल के अनुक्रम से ही सर्व प्रवृत्ति होती है, इसलिये यहाँ काल की समय से भिन्नता सिद्ध होती है / व्यवहार में भी दिन-रात, घड़ी, पल, मास, ऋतु आदि विभाग काल के होते हैं। समय काल का अतिसूक्ष्म भेद है / जीव को तप, जप, यम, नियम, ईश्वरध्यान, करते हुये जैसे-जैसे योग्यता प्राप्त होती जाती है, वैसे-वैसे कालक्रम से जीवात्मा के पुण्यबल से ईश्वर की कृपा होती है / इसी प्रकार प्रधान-कर्म भी अनुक्रम से फल देने में अनुकूलभाव से प्रवृत्त होता है। परन्तु अगर सभी पदार्थों का स्वरूप एकान्त कूटस्थ-नित्य माना जाय तो क्रिया करने में जो कारणभूत पारिणामित्वभाव है वह नहीं हो सकता / इस प्रकार अनुग्रह करने वाला, पाने वाला और अनुग्रहत्व भी असिद्ध होता है। इस प्रकार ईश्वर, जीव, प्रधान, कर्म आदि में असिद्धता प्राप्त होती है / इच्छा न होने पर भी अद्वैतवादी को अनेक स्वरूपता माननी ही पड़ती है, इसलिये परिणामित्वभाव मानना ही चाहिये // 310 // सर्वेषां तत्स्वभावत्वात् तदेतदुपपद्यते / नान्यथाऽतिप्रसङ्गेन, सूक्ष्मबुद्धया निरूप्यताम् // 311 // अर्थ : अगर सूक्ष्मबुद्धि से विचार करें तो (ईश्वर, प्रधान, और अनुग्राह्य) का वैसा स्वभाव मानने से ही उनकी परिणामिकता सिद्ध होती है अन्यथा अतिव्याप्तिदोष आता है // 311 // विवेचन : अगर सूक्ष्मबुद्धि से तत्त्व पर विचार करें तो ईश्वर, प्रधान और अनुग्राह्य इन सभी का वैसा अनुग्राहक, निवृत्ताधिकारित्व और अनुग्राह्य स्वभाव मानने पर ही ईश्वरानुग्रहादि घटित होता है अर्थात् परिणामित्व स्वभाव मानने पर ही सब सिद्ध होता है, अन्यथा अतिव्याप्ति दोष आता है // 311 // आत्मनां तत्स्वभावत्वे, प्रधानस्यापि संस्थिते ईश्वरस्यापि सन्न्यायाद्, विशेषोऽधिकृते भवेत् // 312 // अर्थ : जीवात्माओं का अनुग्राह्य स्वभाव, प्रधान का निवृत्त अधिकारित्व स्वभाव सिद्ध होने पर ईश्वर का भी (अनुग्राहक स्वभाव) विशेष अधिकृत-तीर्थंकरादि रूप न्याययुक्त है // 312 // विवेचन : जीवात्मा, प्रधान और ईश्वर ये सभी अपना-अपना निश्चित स्वभाव रखते हैं / जैसे आत्मा का स्वभाव अनुग्राह्य है, प्रधान-कर्म का स्वभाव निवृत्ताधिकारित्व है और ईश्वर का स्वभाव अनुग्राहक है, यह तथ्य न्याय-तर्कयुक्त है / क्योंकि जब सभी का अपना-अपना स्वभाव है तो ईश्वर का अनुग्राहक स्वभाव विशेष तीर्थंकर एवं गणधर, मुण्डकेवली आदि रूप भी युक्ति सिद्ध है // 312 //