________________ योगबिंदु 183 अर्थ : बुद्धिमानों को ऐसा दुराग्रह (करना) उचित नहीं क्योंकि वे (विद्वान) परमार्थप्रिय होते हैं / जो पूर्वोक्ति (कालातीत की उक्ति) कही है, वह सुन्दर है परन्तु फिर भी उस पर यहाँ पुनः विचार करें // 309 // विवेचन : परमार्थ गवेषक पण्डित पुरुषों को पारमार्थिक तत्त्व की कसौटी करते समय स्वपक्ष में राग और परपक्ष में द्वेषबुद्धि रखकर, कपटयुक्त झुठा कदाग्रह रखना बिल्कुल अनुचित है। क्योंकि पण्डितों के बारे में प्रसिद्ध है कि वे हमेशा सत्यप्रिय, परमार्थप्रिय, तत्त्वप्रिय होते हैं / अर्थात् जो व्यक्ति कसौटी के समय निष्पक्ष रहकर, सत्य तत्त्व को ग्रहण करता है वह वास्तव में पण्डित है। अगर उनमें ऐसा मध्यस्थ भाव नहीं, तो वे पण्डित कहलाने के भी योग्य नहीं हैं / पूर्व में आचार्य कालातीत ने ऐसा सुन्दर कहा है और अन्य आचार्यों ने और पारमार्थिक पण्डित पुरुषों ने भी कहा है कि पक्षपात का त्याग करके, सत्यतत्त्व की गवेषणा, शुद्ध और सूक्ष्मबुद्धि के उपयोग से करनी चाहिये। पण्डितों का यही धर्म है और यही विशेषता है // 309 // उभयोः परिणामित्वं, तथाभ्युपगमाद् ध्रुवम् / अनुग्रहात् प्रवृत्तेश्च, तथाद्धाभेदतः स्थितम् // 310 // अर्थ : काल क्रम के भेद से (ईश्वर और प्रधान के) अनुग्रह और प्रकृति को अंगीकार करने से ईश्वर और प्रधान दोनों का परिणामित्व भाव निश्चित सिद्ध है // 310 // विवेचन : ईश्वर और प्रधान दोनों का परिणामित्वभाव सिद्ध होता है / क्योंकि उनके अभ्युपगम-शास्त्रों के सिद्धान्तानुसार ईश्वर अनुग्रह करके, जीवों की सृष्टि करता है और प्रधान स्वयं प्रवृत्त होकर, जगत की रचना करता है / (उसमें ईश्वर अन्य जीवों पर अनुग्रह करता है और प्रधान अन्य अन्यरूप में प्रवृत्ति करता है ) इस तथ्य को स्वीकार करने पर, अन्य रूप में और अन्य पर्यायरूप में दोनों का परिणामित्वभाव निश्चित सिद्ध होता है / महर्षि कालातीत कहते हैं कि ईश्वर और प्रधान-कर्म, प्रकृतियों के परिणामित्व स्वभाव को स्वीकार करने पर ही वस्तुओं में कथंचित् ध्रुवत्व का निश्चय होता है क्योंकि "उत्पाद विनाश ध्रुवत्वयुक्तं सद्व्यम्" / पदार्थ में पर्यायों की उत्पत्ति, विनाश होता है और एक ऐसा तत्त्व भी होता है जो सदैव स्थित रहता है। ऐसा सिद्धान्त अंगीकार करने पर ही कार्य सिद्ध हो सकता है / ईश्वरचैतन्यधर्मी, परमात्मा सत्ता से नित्य होने पर भी, समय-समय पर नये-नये परिणामरूप पर्याय को धारण करने वाला है, इसीलिये द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से आत्मद्रव्य का ध्रुवत्व नित्यत्व सिद्ध है। उसी कारण से तथाप्रकार के योग्य जीवात्मा की उत्तमभक्ति, पूजा, ध्यान द्वारा ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त कर सकता है / ईश्वर अनुग्रह करता है; वह परिणामिभाव से न हो तो कैसे होगा? इसलिये ईश्वर और जीव दोनों में परिणामिकता सिद्ध होती है। ऐसी ही प्रधान-प्रकृति अथवा कर्म को भी