________________ 182 योगबिंदु विवेचन : कर्म के विषय में तात्त्विक अभेद होने पर भी उसमें व्यर्थ के संज्ञाभेद खड़े करने का प्रयत्न करना अस्थानीय है, क्योंकि देव और कर्म तत्त्व अनुमानगम्य हैं / ईश्वर साकार है या निराकार? कर्म मूर्त हैं या अमूर्त, यह तो अनुमान का विषय है, प्रत्यक्षगोचर नहीं है। ऐसी अनुमानगम्य वस्तु में तात्त्विकभेद न होने पर भी केवल कदाग्रह से संज्ञाभेद उपस्थित करना व्यर्थ है / कर्मतत्त्व सभी के लिये 'हेय' है उसमें दो मत नहीं / फिर मूर्त और अमूर्त में भेद पैदा करके, बुद्धिभेद करना अनुचित है / कार्य को देखकर कारण का अनुमान किया जाता है / कार्य में यहाँ एकता है फिर भी जो वादी प्रतिवादी भेद-कल्पना का प्रयत्न करते हैं; वह अनुचित है। क्योंकि ऐसी प्रवृत्ति अनुमान की सहायता से चलती है और अनुमान का विषय सामान्यरूप है विशेषरूप नहीं, इसलिये अनुमान से ऐसी भेद कल्पना का प्रयत्न करना व्यर्थ है // 30 // साधु चैतद् यतो नीत्या, शास्त्रमत्र प्रवर्तकम् / तथाभिधानभेदात् तु, भेदः कुचितिकाग्रहः // 308 // अर्थ : यह (कालातीताचार्य की उक्ति) न्याययुक्त और उचित है, शास्त्र भी इस विषय में उपदेश की प्रवृत्ति करते हैं कि नाममात्र के भेद से भेद मानना मात्र दुराग्रह है // 308|| विवेचन : श्लोक 307 में श्री कालातीत आचार्य ने बताया है कि देवविशेष और कर्म तत्त्व दोनों अनुमान के सामान्य विषय हैं / दोनों तत्त्व परोक्ष है, इन्द्रियगोचर नहीं है, इसलिये उसमें तत्त्व को ग्रहण करना चाहिये / अनुमान के विषय में नाना प्रकार के भेद की कल्पना करके, बुद्धिभेद करना उचित नहीं है / ग्रंथकर्ता इन (कालातीताचार्य) महाशय की उक्ति को लेकर, शास्त्र प्रमाण पूर्वक उसका समर्थन करते हैं कि शास्त्र में भी यही विधान है, सत्शास्त्र भी यही कहता है कि ईश्वर तत्त्व और कर्म तत्त्व आदि पदार्थों में देश, काल, भाषा, पद्धति आदि के कारण नामभेद होने पर भी मुख्य साध्य को ध्यान में रखकर, भव्यात्माओं को मोक्ष मार्ग में प्रवृत्ति करनी चाहिये / इसलिये मुक्त, बुद्ध, शिव, विष्णु आदि देवताओं में नामभेद से भेद मानना कदाग्रह मात्र है। इसी प्रकार कर्मविषय में नामभेद से भेद मानना मात्र मन की कुटिलता है, दुराग्रह मात्र है और इससे तत्त्व हाथ में नही आता इसलिये तत्त्वाभिलाषी को ऐसे कुतर्कों से दूर रहना चाहिये और उसके तत्त्व को ग्रहण करना चाहिये / __ग्रंथकर्ता को आचार्य कालातीत पर बहुत आदर और बहुमान है, क्योंकि वे एक तटस्थ, सत्य गवेषक, तत्त्वाभिलाषी, गुणग्राहक आचार्य हैं, ऐसा ग्रंथकर्ता को पूर्ण विश्वास है / इसीलिये कर्ता उन्हें महर्षिपद से सम्बोधित करते हैं / बार-बार उनके वचनों का आश्रय लेते हैं ||308 / / विपश्चितां न युक्तोऽयमैदंपर्यप्रिया हि ते / यथोक्तास्तत्पुनश्चारु, हन्तात्रापि निरूप्यताम् // 309 //