________________ योगबिंदु 181 इन्हीं के कारण जीवों का भवभ्रमण बढ़ता है। भवपरम्परा के इस कारण-हेतु को वेदान्ती और अद्वैतवादी 'अविद्या' नाम देते हैं / सांख्य दर्शन वाले इसे 'प्रधान-प्रकृति' कहते हैं / योग दर्शनकार महर्षि पतञ्जली इसे 'क्लेश' बताते है और जैन इसे 'कर्म' कहकर पुकारते हैं / बौद्ध इसी को 'वासना-तृष्णा' कहते हैं / पाशुपत शैव इसे 'पाश' कहते हैं / इस प्रकार नाम अलग-अलग होने पर भी संसारवृद्धि का जो कार्य है वह सभी का एक है, और समान है। सभी इसे त्याज्य और हेय मानते हैं / नाम अलग होने पर भी वस्तु तत्त्व एक है, उसे चाहे अविद्या कहो, वासना कहो या कर्म अथवा पाश, तत्त्व में कोई अन्तर नहीं पड़ता, सब एक ही है। ग्रंथकार की दृष्टि, विचार कितने सुलझे हुये और विशाल है // 305 / / अस्यापि योऽपरो भेदश्चित्रोपाधिस्तथा तथा / गीयतेऽतीतहेतुभ्यो, धीमतां सोऽप्यपार्थकः // 306 // अर्थ : इसका (प्रधानरूप कर्म का) भी जो अन्य भेद अपने-अपने दर्शनशास्त्रों में नाना प्रकार के विशेषण देकर किया है वह भेद भी अतीत हेतुओं से (अन्य में जो विशेष परिज्ञान का अभावादि बताया है, उनके कारण) बुद्धिमानों को अकिंचित्कर लगता है // 306 // विवेचन : सभी दर्शनों में प्रधान को नानारूपों से सम्बोधित किया है, जैसे वेदान्ती इसे अविद्या, सांख्यवादी इसे प्रधान, जैन इसे कर्म, शैव इसे पाश नाम से पुकारते हैं। सभी ने नाम अलग-अलग दिये हैं / कुछ लोग इसे मूर्त मानते हैं और कुछ अमूर्त मानते हैं परन्तु इन सभी भिन्नताओं में भी अभिन्नता रही हुई है, और वह अभिन्नता है भव-संसार के बंध न का हेतुत्व, वह सर्वत्र एक समान व्याप्त है / पूर्व के श्लोक में जो हेतु कहे हैं कि विशेष पर-ज्ञान का अभाव और विवेक का अभाव है अगर विवेक होता तो इतने भेद न करते / परन्तु बुद्धिमानों को जैसे देवता विशेष के नामभेद में भी गुण का अभेद दिखाई देता है वैसे ही कर्म विशेष में अविद्या, वासना, पाश, प्रकृति आदि नामभेद होने पर भी भवबीजत्व का अभेद सर्वत्र दिखाई देता है / परमार्थी बुद्धिमानों को यह भेद अकिंचित्कर लगता है, क्योंकि (यम, नियम, आदि योग की अन्य शुभ प्रवृत्तियों द्वारा वह मल दूर करना है) कर्म मूर्त हो या अर्मूत, लेकिन वस्तु त्याज्य और हेय है, इसमें किसी को विरोध नहीं। उसे दूर करने पर ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है / इसलिये ऐसे भेदों में कुछ नही रखा है // 306 // ततोऽस्थानप्रयासोऽयं, यत् तद्भेदनिरूपणम् / सामान्यमनुमानस्य, यतश्च विषयो मतः // 307 // अर्थ : इसलिये यह जो भेद निरूपण किया है वह अनुचित - व्यर्थ है क्योंकि अनुमान का विषय सामान्य है // 307 //