________________ 180 योगबिंदु तात्पर्य यह है कि यद्यपि बाह्यदृष्टि से ईश्वर के स्वरूप में भेद दिखाई देता है, परन्तु निश्चयनय की दृष्टि में इन भेदों का कोई अर्थ-प्रयोजन नहीं है // 303|| विशेषस्यापरिज्ञानाद् युक्तीनां जातिवादतः / प्रायो विरोधतश्चैव फलाभेदाच्च भावतः // 304 // अर्थ : (कारण कि मुक्तादि देवता) विशेष के अपरिज्ञान से, युक्तियों के हेतुवाद-असिद्धादि दोष रूप प्रायः परस्पर विरोध होने से तथा फलाभेद होने से और भाव से (सभी का ईश्वरत्व) मानना ही उचित है // 30 // विवेचन : विचारों की विभिन्नता अर्थहीन है, क्योंकि उच्च ईश्वरादि महान् आत्माओं के विषय में यथार्थ जानकारी हमारी बुद्धि के बाहर की वस्तु है। क्योंकि कि इस विषय में जो-जो भी युक्तियाँ, तर्क, हेतु आदि दिये जाते हैं, विचार विमर्श के लिये जो-जो दलीले दी जाती हैं, वे प्रायः भ्रमजनक और परस्पर विरोधी होती हैं / परन्तु उसकी आराधना द्वारा जो फल प्राप्त होता है, वह समान होता है / फल में भेद नहीं आता और भाव से ज्ञानादि गुणों के अतिशय प्रकर्ष में भी कोई भेद नहीं / इसलिये सब को ईश्वर मानना उचित है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक तन्त्रवादी को विशेष प्रकार के शुद्धज्ञान का अभाव होता है / उनके वचन एकान्तवादी होते हैं इसलिये परस्पर विरोधी होते हैं / बौद्ध, शैवों के ईश्वर का खण्डन करते हैं और शैव, बौद्धों के ईश्वर को अपनी युक्तियों से काटते हैं / इस प्रकार युक्तिवादों से और असिद्धादिरूप हेत्वाभासों से एक दूसरे के ईश्वर का खण्डन करते हैं, परन्तु वह तो केवल वाक्युद्ध मात्र है / परन्तु अपने आराध्य की आराधना का फल सभी को समान मिलता है और उनमें ज्ञानादिगुणप्रकर्ष भी सभी को मान्य है। नाम और स्वरूपभेद से वस्तु का अभाव नहीं हो सकता जैसे गेहूँ के आटे से अनेक पकवान बनते है। और उनके नाम भी अलग-अलग होंगे / स्वरूप और स्वाद भी अलग होगा / परन्तु पौष्टिक तत्त्व, गेहूं का आटा सभी में विद्यमान है। उससे मिलने वाला लाभ भी समान है, अर्थात् लाभ कम-ज्यादा हो सकता है परन्तु लाभ का अभाव नहीं हो सकता / गेहूं का आटा सभी को मान्य है इसी प्रकार आराधना की पुष्टिरूप आलम्बनस्वरूप ईश्वर सभी को मान्य है। उसमें किसी का भी दो मत नहीं // 304 // अविद्या-क्लेश-कर्मादिर्यतश्च भवकारणम् / ततः प्रधानमेवैतत्, संज्ञाभेदमुपागतम् // 305 // अर्थ : जैसे अविद्या, क्लेश, कर्मादि भव-संसार के हेतु हैं, वैसे ही प्रधान (प्रकृति) भी (हेतु) ही है, केवल नाम अलग है // 305 // विवेचन : भवपरम्परा का मुख्य हेतु अज्ञान, मिथ्यात्व, कषाय, प्रमाद और अशुभयोग है।