________________ योगबिंदु 179 भी हमारे कथित मोक्ष मार्ग के अनुसार मानते हैं; अगर तत्त्वनीति-स्याद्वादन्याय की अपेक्षा से विचार करें तो तत्त्व तो एक का एक है और वस्तु वही की वही है, उसमें किसी प्रकार की विभिन्नता नही आती है // 301 // मुक्तो बुद्धोऽर्हन् वाऽपि यदैश्वर्येण समन्वितः / तदीश्वरः स एव स्यात्, संज्ञाभेदोऽत्र केवलम् // 302 // अर्थ : 'मुक्त', 'बुद्ध', 'अर्हत्' अथवा जो-जो भी ऐश्वर्य से युक्त हैं वही ईश्वर है / केवल नाम मात्र का ही यहाँ पर भेद है // 302 // / विवेचन : ऐश्वर्य अर्थात् ज्ञानादिगुणों के अतिशय से जो युक्त हो, वह ईश्वर है / उसे चाहे मुक्त कहो, बुद्ध कहो या अर्हत् कहो केवल नाम अलग है वस्तु अलग नहीं है। वह सर्व कर्म कलंक से मुक्त होता है इसलिये परमब्रह्मवादी उसे मुक्त कहते हैं / वह सर्व पदार्थों को अपने ज्ञानातिशय से जानता है, इसलिये बौद्ध उसे बुद्ध नाम देते हैं / पूजने योग्य गुणों के अतिशय से युक्त होने से जैन उसे अर्हत् नाम से स्मरण करते हैं / वैष्णव उसे विष्णु कहते हैं और सर्वकल्याणकारी होने से शैव उसे शिव नाम से पुकारते हैं। इस प्रकार नाम अलग-अलग होने पर भी सभी अत्यन्त अतिशय वाले केवलज्ञान, केवलदर्शन और पूर्ण उच्चकोटि के चारित्ररूप ऐश्वर्य से जो युक्त हैं ऐसे परमात्मा को हम ईश्वर कहते हैं / यद्यपि नाम भेद है परन्तु वस्तु में भेद नहीं है। श्री मानतुङ्गाचार्य ने भक्तामर स्तोत्र में भी इसी भाव को इस प्रकार प्रकट किया है : बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित ! बुद्धि-बोधात्, त्वं शंकरोऽसि भुवन-त्रय-शंकरत्वात् / धाताऽसि धीर ! शिव-मार्ग-विधेविधानात्, व्यक्तं त्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोऽसि // भक्तामर गाथा-२५ ईश्वर के नाम भेद होने मात्र से कोई फर्क नहीं पडता // 302 // अनादिशुद्ध इत्यादिर्यश्च भेदोऽस्य कल्प्यते / तत्तत्तन्त्रानुसारेण, मन्ये सोऽपि निरर्थकः // 303 // अर्थ : अनादिशुद्ध इत्यादि जो भी इसके भेद अपने-अपने शास्त्रानुसार कल्पित किये हैं, वे भी निरर्थक है, ऐसा मैं मानता हूँ। विवेचन : मैं मानता हूं कि शैवों ने अपने शास्त्र में ईश्वर को जो अनादिशुद्ध और सर्वगत माना है; बौद्धों ने अपने शास्त्र में ईश्वर को असर्वगत और क्षणिक माना है। जैनों ने आगमों में ईश्वर को जो सादि और असर्वगत माना है, वे सब भेद अकिंचित्कर हैं, इसलिये निरर्थक है /