________________ 178 योगबिंदु अर्थ : कर्म नाम की अन्य जिस विचित्र शक्ति से आत्मा का भव (जन्मादि) होता है; वह भी (उस आत्मा की अपनी स्वभाव की) योग्यतानुसार ही होता है अन्यथा (नहीं क्योंकि उससे) अतिव्याप्ति दोष आता है // 299 / / विवेचन : जीवात्मा संसार में जो नया जन्म धारण करता है, नया शरीर, इन्द्रियाँ, ज्ञान, शक्ति, कुटुम्ब, परिवार अनुकूल या प्रतिकूल जो कुछ भी प्राप्त करता है, वह उसकी अपनी योग्यतानुसार किये गये कर्मों के योग से ही करता है। अगर ऐसा न माने अर्थात् कर्म और स्वयोग्यता बिना केवल ईश्वर के अनुग्रह से वैसा नाम, जाति, कुल, गौत्र, जन्म, शरीर, कुटुम्ब आदि की प्राप्ति माने तो अनेक दोषों की आपत्ति आती है, और स्वयोग्यता के अभाव में भव्य और अभव्य की कोई भेद रेखा नहीं रहती, इसलिये सर्वत्र कर्म और स्वयोग्यता को ही प्रधान हेतु मानना चाहिये। अतिव्याप्ति दोष-सर्वजीवों को सर्वत्र-सर्वकर्म लागु पड़ेंगे क्योंकि उसमें स्वयोग्यता का अभाव है // 299 / / माध्यस्थ्यमवलम्ब्यैवमैदम्पर्यव्यपेक्षया / तत्त्वं निरूपणीयं स्यात्, कालातीतोऽप्यदोऽब्रवीत् // 300 // अर्थ : मध्यस्थ रहकर, तत्त्वस्वरूप का यथार्थ पर्यालोचन करके, तत्त्व निरूपण करना चाहिये, आचार्य कालातीत ने भी यही कहा है // 300 // विवेचन : स्वपक्ष में राग, परपक्ष में द्वेष इस प्रकार का राग-द्वेष जिसमें हो, वह वस्तुतत्त्व का यथार्थ निश्चय नहीं कर सकता, इसलिये पक्षपात को छोड़कर, रागद्वेषरहित होकर, मध्यस्थ रहकर, तत्त्वग्रहण की दृष्टि रखकर, युक्तिपूर्वक तत्त्व-वस्तुतत्त्व का निरूपण करना चाहिये / पारमार्थिक देव कैसा होता है? सच्चा धर्म कैसा होता है ? सद्गुरु कैसा होता है ? उन सभी का निश्चय उनका यथार्थ बोध होने पर होता है, और मध्यस्थ व्यक्ति ही वस्तुतत्त्व को पा सकता है। आचार्य कालातीत ने भी ऐसा ही कहा है कि यदि मध्यस्थ रहकर विचार करें, तो गुण प्रकर्षरूप देवता विशेष सभी को वन्दनीय है // 300 // "अन्येषामप्ययं मार्गो, मुक्ताविद्यादिवादिनाम् / अभिधानादिभेदेन, तत्त्वनीत्या व्यवस्थितः // 301 // अर्थ : मुक्तवादी, अविद्यावादी आदि अन्य मतावलम्बियों का भी यही मार्ग (योगमार्ग) है, केवल नामादि में भेद है / तत्त्वनीति से तो (इसी मार्ग में) व्यवस्थित है // 301 // विवेचन : मुक्तवादी-परब्रह्मवादी, अविद्यावादी वेदान्ती आदि अन्य मतावलम्बियों का भी यही मार्ग है / वे भी हमारे कथित योगमार्ग को ही स्वीकार करने वाले हैं / यद्यपि उनके देव, गुरु और धर्म का नाम अलग हैं; स्वरूप में भेद हैं; भाषा और शैली में विभिन्नता हैं; कुछ तत्त्वों को वे एकान्तनित्य मानते है और कुछ को एकान्त-अनित्य मानते हैं; परन्तु फिर भी कुछ अंशों में वे