________________ योगबिंदु 177 उत्तमगुणवाले देवों की "शक्ति" "गुण", "आनन्द" को प्राप्त करने के लिये, उनके अनुग्रह को प्राप्त करने के लिये, उस देव की पूजा, सेवा, भक्ति करके, गुणस्तवन करके, महान् पुण्य को प्राप्त करता है। उस पुण्य के बल से, अनुक्रम से, अपने योग्य सिद्धियों को प्राप्त करता है। उसमें परमात्मा की कृपा-अनुग्रह उपचारभाव से इच्छनीय है। तात्पर्य है कि स्याद्वादसिद्धान्त के अनुसार औपचारिक रूप से ईश्वर का अनुग्रह मान्य है उसमें कोई दोष नहीं है // 297 // गुणप्रकर्षरूपो यत्, सर्वैर्वन्धस्तथेष्यते / देवतातिशयः कश्चित्, स्तवादेः फलदस्तथा // 298 // अर्थ : गुणप्रकर्षरूप (गुण का उत्कृष्टत्व हो जिसमें) ऐसा कोई भी अतिशय शक्तिवंत देवता सभी के द्वारा वन्दनीय है, तथा स्तवनादि से फल को देने वाला है // 298 // विवेचन : ज्ञानादि गुण जिसमें उत्कृष्ट रूप से प्रकट हुये हों, ऐसा कोई भी देवताविशेष सभी को इष्ट है / फिर चाहे उसे ईश्वर कहो, जिन कहो या हरि, हर, ब्रह्मा, विष्णु, चाहे उसे कोई भी नाम दे वह सभी को वन्दनीय है। क्योंकि जहाँ भी गुणों का अतिशय है वह हमारे लिये स्तुत्य और आदरणीय है क्योंकि "गुणा हि पूजा स्थानं", कहा भी है : भव बीजांकुर जनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य / विष्णु र्वा ब्रह्मा वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै // श्री हेमचन्द्राचार्य, सोमनाथ महादेव के मन्दिर में जाकर, ऐसी स्तुति करते हैं कि रागादि दोष जिसके क्षय हो चुके हैं, ऐसे कोई भी देव चाहे उनका नाम विष्णु, ब्रह्मा हो या हर या जिन उन्हें मेरा नमस्कार है। कहा जाता है कि "जिनेश्वरादि परमात्मा की सेवा, पूजा, ध्यान, स्तवन आदि क्रिया-अनुष्ठान, स्वर्ग और अपवर्ग रूपी फल को देने वाला होता है" / जैसे जिनदेव को अनुलक्ष्य करके की गई क्रिया-अनुष्ठान फल को देती है, वैसे ही जगत्कर्ता अथवा नित्य, ईश्वर, ब्रह्मा, महादेव आदि नाम वाले गुणातिशय देव की सेवाभक्ति, स्तवन, वन्दन आदि श्रद्धा पूर्वक की गई क्रियाअनुष्ठान वैसे फल को देनेवाली हैं / इस प्रकार ईश्वर का अनुग्रह जीव के लिये उपकारक है / तात्पर्य है कि गुणी सभी को आदरणीय है और गुणी की स्तुति करने से आत्मा के गुण प्रकट होते हैं, यही सब से बड़ा उत्तम फल है // 298 // भवंश्चाश्चाप्यात्मनो यस्मादन्यतश्चित्रशक्तिकात् / कर्माद्यभिधानादेर्नान्यथाऽतिप्रसङ्गतः // 299 //