________________ 176 योगबिंदु की योग्यता को छोड़कर, ईश्वर की कृपा अथवा प्रधान-प्रकृति की परिणति में इतना सामर्थ्य नहीं कि वह अकेली जीवात्मा को मुक्त करवा सके या विभिन्न दशाओं में ला सके। क्योंकि ईश्वरवादियों के ग्रन्थ गीता में भी कहा है कि: न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः / न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते // 14 // गीता, 5/14 ईश्वर का कोई हाथ नहीं है / यहाँ भी स्वभाव की योग्यता को ही स्वीकार किया है / नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः / / अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः // 15 // गीता, 5/15 परमात्मा किसी के पापपुण्य कुछ भी लेता-देता नहीं / प्राणी अपने ही अज्ञान के कारण मोहित होकर, विपरीत कार्य करते हैं / इसी प्रकार प्रकृति को अधिकार की निवृत्ति भी जीव की अपनी स्वाभाविक योग्यता के ऊपर निर्भर है। स्वभाव की योग्यता तो माननी ही पड़ेगी उसके सिवाय कार्यसिद्धि नहीं होती, इसलिये हमारे स्वभाव की योग्यता को ही मोक्ष का हेतु मानना उचित है। ईश्वर की कृपा को हेतु मानने से ईश्वर में दोषापत्ति आती है, अतः उक्त व्यवस्था ही उचित है। दोनों पक्षों में अर्थात् ईश्वरानुग्रह में और प्रकृति की परिणति में भी स्वभाव की योग्यता के सिवाय उक्त व्यवस्था घटित नहीं होती अत: स्वभाव की योग्यता तो मानना ही चाहिये // 296 / / आर्थ्य व्यापारमाश्रित्य, न च दोषोऽपि विद्यते / अत्र माध्यस्थ्यमालम्ब्य, यदि सम्यग्निरूप्यते // 297 // अर्थ : मध्यस्थ रहकर, यदि सम्यक् निरूपण करें, तो सामर्थ्य प्राप्त करने के लिये यहाँ दोष भी नहीं है // 297 // विवेचन : मध्यस्थ रहकर, यदि सोचे विचारें कि भव्यात्मा के आत्मसामर्थ्य को प्रकट करने में अगर वैसी ईश्वर की कृपा-अनुग्रह पुष्टावलम्बनरूप बने तो ऐसी ईश्वर की आराधना उनकी कृपा प्राप्त करने में, जरा भी दोष नहीं है। क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्तानुसार अपेक्षादृष्टि से विचार करने पर ईश्वर जो कि वीतराग है उसका ध्यान करके, आत्मा इष्ट-फल को प्राप्त करती है / स्याद्वादसिद्धान्त से मान्य यह बात है कि वीतरागदेव की पूजा, सेवा करना, अनुष्ठान आदि करना आत्मा के गुण प्रकट करने के लिये होता है / लोक-व्यवहार में भी ऐसा होता है जैसे अर्थ-धन-धान्य-रत्न स्वर्ण के इच्छुक अथवा सांसारिक भोगों के इच्छुक आर्थिक वस्तु से पुष्ट ऐसे धनवान, ज्ञानवानों, बुद्धिमानों का आश्रय लेकर; उनके मन को रञ्जित-खुश करके, अपने व्यापार के लिये उनकी आर्थिक अथवा बौद्धिक सहायता लेकर संसार में सुखी होते हैं / वैसे ही यहाँ मोक्ष के अर्थी-मुमुक्षुयोगी वैसे