________________ योगबिंदु 175 तादृशी', अत्यन्त पूर्ण उत्तमश्रद्धा से किये गये अनुष्ठान से उत्तम तीर्थंकरत्व की प्राप्ति होती है और मध्यम श्रद्धा से गणधर और अल्प श्रद्धावंत सामान्य केवली और अल्पतर श्रद्धावाला मूककेवली होता है। तात्पर्य यह है कि भव्यत्व योग्यता सांसिद्धिक नानात्वरूपवाली माननी चाहिये / इसी पर विशेष विवाद हुआ है और पिछले इस श्लोक में भी यही कहा है कि सदनुष्ठान में भी श्रद्धा की तारतम्यतानुसार ही फल में नानात्व आता है / परमत वाले सांख्य लोग भी ऐसा ही मानते हैं // 294 / / विशेष चास्य मन्यन्त, ईश्वरानुग्रहादिति / प्रधानपरिणामात् तु, तथाऽन्ये तत्त्ववादिनः // 295 // अर्थ : कितने ही मतवादी ईश्वर की कृपा से इस विशेषता को (अधिमुक्ताशय वाले की इस पूर्ण अडिग श्रद्धा विशेष को) मानते हैं तथा अन्य तत्त्ववादी-सांख्य तो प्रकृति की परिणति से मानते हैं // 295 // विवेचन : पूर्व में कह चुके हैं कि अधिमुक्ति के आशय में स्थिरता आना यानि सर्वकर्म कलंक का त्याग करके, सहजानन्द रूप शिवपद की प्राप्ति की अभिलाषा होने के लिये जो अध्यवसायरूप पूर्णश्रद्धायुक्त स्थिरता वाली शुद्ध परिणामधारा है, वह मुक्ति का उपादान कारण है। यह तथ्य सर्वमतवादियों को स्वीकृत हैं, परन्तु कुछ लोग विशेष यह मानते हैं कि इस प्रकार की स्थिरता में कोई ईश्वर, महेश्वर, विष्णु आदि की कृपा हेतु है अर्थात् उनका मानना है कि ईश्वर की कृपा से ही मुक्त होने की अभिलाषा होती है। अन्य मतवाले सांख्यवादी मानते हैं कि जब प्रधानप्रकृति अपना अधिकार जीवात्मा से हटा लेती है; तब उसे ऐसी मुक्त होने की प्रबल अभिलाषारूप अध्यवसाय होता है। इस प्रकार तत्त्ववादी मुक्ति के लिये विभिन्न बाह्य हेतुओं की चर्चा करते हैं, परन्तु वास्तव में तो आत्मस्वरूप की प्राप्ति रूप शुद्ध अध्यवसाय ही मुक्ति का हेतु है // 295 // तत्तत्स्वभावतां मुक्त्वा, नोभयत्राप्यदो भवेत् / एवं च कृत्वा ह्यत्रापि हन्तैषैव निबन्धनम् // 296 // __ अर्थ : (जीवात्मा की) उस स्वाभाविक योग्यता को छोड़कर, दोनों पक्षों में भी (ईश्वरानुग्रह और प्रकृति की परिणति पक्ष दोनों में) उक्त सिद्धि होने वाली नहीं, इसलिये उक्त व्यवस्था ही उचित है // 296 / / विवेचन : पूर्व में कह चुके हैं कि तीर्थंकरत्व, गणधरत्व आदि विभिन्न अवस्थाओं को जीव अपनी योग्यता विशेष से प्राप्त करता है; जिस जीव में जैसी योग्यता का विकास हुआ हो उसे वैसा ही फल मिलता है, उसमें ईश्वर (अथवा प्रकृति) की कृपा मुख्य हेतु नहीं हो सकती क्योंकि स्वभाव