________________ 174 योगबिंदु सहायक आदि अलग-अलग प्रकार के स्वभाव वाली कारणों की सामग्री प्राप्त होती है / इस प्रकार एक दूसरे कारणों का परस्पर सम्बंध भी, वैसे प्रकार से होने वाले कार्यों में अपेक्षित है। इस प्रकार सर्वकार्यों में वैसी अनुकूल सामग्री का संयोग अवश्य मानना चाहिये, सहकारी कारण भी कार्य को व्याप्त होकर रहते हैं / अमुक में उस सामग्री की अपेक्षा रहती है अमुक में नहीं / जैसे जिस बीज से आम पैदा होने वाला हो उसे वैसी हवा, पानी, भूमि, ऋतु आदि अनुकूल सामग्री का सहकार मिलने पर अवश्य वह आम वृक्ष बनेगा और फल की सिद्धि होगी / इसी प्रकार जोजो कार्यविशेष जिस आत्माविशेष से होने योग्य हो उसे वैसी सर्वप्रकार की सामग्री का सहयोग मिलता है। उससे होने वाले कार्यों में आत्मा उपादान कारण बनती है यह बात पूर्व में ८२वें श्लोक में भी बता चुके हैं। इस प्रकार उन-उन कार्यों में उसके उपादान की विचित्रता माननी न्याययुक्त है। तात्पर्य यह है कि जिस आत्मा की जैसी योग्यता, उसको वैसे निमित्त उपलब्ध हो जाते हैं। इसमें मुख्य कारण भव्यत्वयोग्यता की स्वाभाविक विचित्रता है, इसलिये इससे अन्यथा घटित नहीं होता, सिद्ध नहीं होता // 293 / / अधिमुक्त्याशयस्थैर्यविशेषवदिहापरैः / इष्यते सदनुष्ठानं, हेतुरत्रैव वस्तुनि // 294 // अर्थ : अन्य मतावलम्बी भी इस विषय में (तीर्थंकर, गणधर, मुण्डकेवलीत्वादि अवस्था प्राप्ति में) पूर्ण श्रद्धायुक्त जो स्थिरता विशेष है उससे समन्वित सदनुष्ठान को ही हेतु मानते हैं // 294 // विवेचन : अधिमुक्ति-मुक्ति में जिसका आशय अध्यवसाय विशेष स्थिर है अर्थात् "आत्मा सर्वकर्मबंध न से मुक्त हो, परमानन्द का भोक्ता बने", इस प्रकार के शुभ अध्यवसायों से युक्त संपूर्ण श्रद्धा युक्त - जिस श्रद्धा में विशेष स्थिरता हो अर्थात् अडिग, अकम्प हो; जिस श्रद्धा में किसी प्रकार के भी संकल्प विकल्प को स्थान नहीं, सांसारिक क्लेशों के हेतु विद्यमान होने पर भी, उससे उद्वेग और विषाद पाकर, जिस श्रद्धा में कोई परिवर्तन न होने पाये; विषयभोग के देवेन्द्र, चक्रवर्तीत्व आदि भोगों के सैकड़ों प्रलोभन, सिद्धियों, लब्धियों और नाना प्रकार की बाह्य चमत्कारिक शक्तियों के प्रलोभन भी जिस श्रद्धा को हिला न सकें; सुख और दुःख में भी जो श्रद्धा अटूट रहे, ऐसी श्रद्धा जिस महात्मा को होती है वह अधिमुक्ताशय वाला कहा जाता है। ऐसी श्रद्धा से युक्त जो सदनुष्ठान देवपूजा, गुरुभक्ति, तप, जप, स्वाध्याय, ध्यान, लोकोपकार के कार्य, सेवा, वैयावच्च आदि ही तीर्थंकर, गणधर, मुण्डकेवली की अवस्था प्राप्त करने में मुख्य हेतु है / सांख्य आदि अन्य मतावलम्बी भी ऐसा ही मानते है कि सदनुष्ठान में श्रद्धा के तारतम्यतानुसार, फल में नानात्व आता है। जैसी जिसकी श्रद्धा वैसा उसको फल मिलता है / 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति