________________ योगबिंदु 173 इस प्रकार स्वाभाविक भव्यत्व योग्यता की नानारूपता सिद्ध हुई / अगर भव्यत्व में नानारूपता न माने तो उपर जो भेद पड़ते है वह नहीं घटित नहीं हो सकते। अत: मानना चाहिये भावना विशेष की विचित्रता विविधता की प्राप्ति भी जीवात्मा को तथाभव्यत्वता तथा भवितव्यता के योग से विचित्र निमित्तों द्वारा होती है। भवितव्यता की विचित्रता बिना अन्य मुख्य कारण घटता नहीं है / यह सब युक्तियुक्त, न्याययुक्त एवं शास्त्रविहित हैं // 291 // एवं कालादिभेदेन, बीजसिद्धयादिसंस्थितिः / सामध्यपेक्षया न्यायादन्यथा नोपपद्यते // 292 // अर्थ : इस प्रकार काल-आदि भेद से सामग्री की अपेक्षा से बीज सिद्धि न्याययुक्त है इससे अन्यथा नहीं होती // 292 / / / विवेचन : पूर्वोक्त प्रकार से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि की विचित्र स्वरूपवाली निमित्त तथा उपादान कारणरूप सामग्री विशेष के अनुसार जो बीजसिद्धि अर्थात् तीर्थंकर, गणधर, मुण्डकेवली अथवा अन्य विचित्र लब्धियाँ या सिद्धियाँ प्राप्त होती है, वह विचित्र बीजरूप सामग्री का योग भी भवितव्यता के अनुसार मिलता है। जिसे हम सरल भाषा में भावीभाव कहते हैं वही भव्यत्व है और नाना प्रकार का है। उसकी स्वाभाविक विचित्रता से ही सर्वत्र विचित्रता आती है। यही न्याययुक्त है; तर्कसंगत है; अन्यथा अगर भव्यत्व को नानारूपवाला न माने, तो विचित्र कार्य सिद्ध नहीं होते, इसलिये जो-जो भी शक्तियाँ-सिद्धियाँ-लब्धियाँ भव्यात्माओं को प्राप्त होती है वह सब उसी प्रकार की भव्यात्माओं को उनकी अपनी वैसी योग्यता-भव्यत्वयोग्यता के अनुसार, वैसे निमित्तकारण तथा सहकारी कारणों के योग से प्राप्त होती है // 292 / / तत्तत्स्वभावता चित्रा, तदन्यापेक्षणी तथा / सर्वाभ्युपगमव्याप्त्या, न्यायश्चात्र निदर्शितः // 293 // अर्थ : उस-उस वस्तु के स्वभाव में ही विचित्रता रही हुई है और वह (विचित्रता) अन्य निमित्तों की अपेक्षा रखने वाली है, सर्वकार्य उससे व्याप्त हैं, यहाँ (इसका दृष्टान्त बीजसिद्धि आदि) न्याय निरुपित कर दिया है // 293 / / _ विवेचन : उपादान कारण, निमित्तकारण और सहकारी कारणों से ही कोई भी कार्य सिद्ध होता है। तीनों परस्पर इतने सम्बन्धित हैं, व्याप्त हैं कि एक दूसरे के बिना कार्य सिद्ध नहीं हो सकता; इसलिये कार्य में सभी कारणों की परस्पर अपेक्षा रहती है। इसी को यहाँ बताते हैं कि प्रत्येक वस्तु के स्वभाव में नानारूपता होती है। जिस आत्मा द्वारा जो विचित्रता होने वाली हो उसके अनुकूल वह स्वभाव उस आत्मा में सत्तारूप में रहा होता है तथा उसे वैसी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, सद्गुरु,