________________ 172 योगबिंदु संजोग-मूला-जीवेण, पत्ता दुक्ख-परंपरा / तम्हा संयोग सम्बंधं, सव्व तिविहेण वासिरिअं // संथारा पोरिसिसूत्र इत्यादि एकत्व भावना पर आरूढ़ होकर, एकत्व भावना के बल से सतत अपनी आत्मा के हित के लिये, आत्मकल्याण के लिये ही प्रवृत्ति करता है। वह स्वयं अकेला ही अपनी आत्मा में सतत रमण करता है। ऐसी जीवात्मा मुण्डकेवली होती है। मोक्ष एव धर्म के प्रति अनुराग संवेग है और संसार की असारता का जानना भवनिर्वेद है। अर्थात् भवनिर्वेद से संसार की असारता को जानकर और संसार में आत्मा और धर्म के सिवाय दूसरी कोई सच्ची शरण नहीं ऐसा सोच कर, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोकादि भव परम्परा के दुःखों से आत्मा को मुक्त करने के लिये, योग्य धार्मिक अनुष्ठान तप, जप, स्वाध्याय ध्यान करता है। स्वयं अकेला ही जो अपनी आत्मा में रमण करता है; मन, वचन, काया के योगों को शुद्ध करता है और द्रव्य से पांच महाव्रतों को धारण करता है, केशमुण्डन से द्रव्यमुण्ड होता है और क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व का त्याग करके, भाव मुण्ड होता है। ऐसी जीवात्मा शुक्लध्यान द्वारा आत्मभाव में आरुढ़ होकर, केवलज्ञान और दर्शन को प्राप्त करती है पर वह अन्य लोगों के लिये उपकारक सिद्ध नहीं होती; विशेष अतिशय रहित होने से शिष्यसमुदाय भी नहीं होता / इसीलिये इन्हें 'मुण्डकेवली' कहा गया है अथवा मूककेवली भी कहते हैं / शास्त्रों में मुण्डकेवली के दृष्टान्त पीठ और महापीठ के नाम से दिये गये है। तात्पर्य यह है कि जो जीव केवल अपनी ही आत्मा का कल्याण करते हैं वह मुण्डकेवली हैं // 290 // तथाभव्यत्वतश्चित्रनिमित्तोपनिपाततः / एवं चिन्तादिसिद्धिश्च, सन्न्यायागमसङ्गता // 291 // अर्थ : तथाभव्यत्वता की योग्यता के कारण ही विचित्र निमित्तों (काल, स्वभाव, नियति, कर्म, पुरुषार्थ रूप निमित्त कारणों) की प्राप्ति होती है / इस प्रकार विचित्र-विविध चिन्ता भावनाविचारों की सिद्धि न्याययुक्त और शास्त्र संगत है // 291 / / विवेचन : कारणवैचित्र्य बिना कार्यवैचित्र्य लोक और शास्त्र में भी कभी होता नही है। कार्यवैचित्र्य कारणवैचित्र्य की अपेक्षा रखता है अर्थात् कोई आत्मा तीर्थंकर होती है; कोई गणधर बनती है तो कोई सामान्य केवली होती है, इस प्रकार मोक्ष में तो सभी जाने वाले हैं / मोक्षमार्ग सभी का एक है परन्तु फिर भी उपर्युक्त जो भेद बताये हैं वे तथाभव्यत्व की नानात्व योग्यता को लेकर होते हैं। क्योंकि जीवात्माओं को वैसा-वैसा, काल, नियति, स्वभाव, भावीभाव, कर्म और पुरुषार्थ रूप कारण समवायपंचक भी उसकी वैसी-वैसी योग्यता के अनुसार ही प्राप्त होते हैं / अतः इन सभी विचित्रताओं का मूलकारण स्वाभाविक भव्यत्व की नानारूपता में रहा हुआ है / चिन्तादि भावना विशेष अनुष्ठान आदि विचित्रता की प्राप्ति का मुख्य हेतु, तथाप्रकार की भव्यत्वता है /