________________ योगबिंदु 171 है जब जीव सर्वभूतों में आत्मभाव के दर्शन करता है / गीता में भी इस स्थिति को "आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति सःपश्यति" स्थितप्रज्ञ की उच्च अवस्था के रूप में वर्णन किया है / इस प्रकार सर्वजीवों के प्रति तीर्थंकर दयालु होते हैं // 288 // चिन्तयत्येवमेवैतत् स्वजनादिगतं तु यः / तथानुष्ठानतः सोऽपि, धीमान् गणधरो भवेत् // 289 // अर्थ : जो (उत्तमबोधिसम्पन्न जीवात्मा) स्वजनादि के सम्बंध में ऐसी चिन्ता (संसार से पार उतारने की चिन्ता) करता है और तदनुरूप उपकार भी करता है वह प्रशस्त बुद्धि पुरुष गणधर होता है // 289 // विवेचन : जो उत्तमबोधि सम्पन्न जीवात्मा अपने स्वजन, मित्र, कुटुम्ब, ग्राम, नगर, देश के सम्बंध में ऐसी चिन्ता करता है कि मैं इनको संसार समुद्र से पार उतारूं, सर्वदुःखों से इनको मुक्त करूं / मेरे स्वजन, मित्र, कुटुम्बी, नगरनिवासी, मेरे देशवासी सुखी रहे, सर्वदुःखों से मुक्त रहे; कल्याणपथ पर चलें इस प्रकार की भावना से प्रेरित होकर, उनको मार्गदर्शन देता है; उपदेश देता है; उनके उपर उपकार करता है, वह बोधिप्रधान प्रशस्त बुद्धि जीव गणधर (तीर्थंकर भगवान के प्रथम शिष्य) बनते हैं और देव-दानव-मानवों से माननीय-वन्दनीय बनते हैं / तात्पर्य यह है कि जिसकी कल्याणकारक प्रवृत्ति अपने स्वजन, कुटुम्ब, ग्राम, देश तक मर्यादित होती है वह गणधर होता है और जिसकी कल्याणमयी प्रवृत्ति सार्वभौम, अमर्यादित-असीम होती है, वह तीर्थंकर होता है // 289 // संविग्नो भवनिर्वेदादात्मनिः सरणं तु यः / / आत्मार्थसंप्रवृत्तोऽसौ, सदा स्यान्मुण्डकेवली // 290 // अर्थ : जो (उत्तमबोधिप्रधान जीवात्मा) भवनिर्वेद से संवेग पाकर, 'आत्मा के सिवाय कोई शरण नहीं' ऐसा सोच कर, सदैव 'आत्मार्थ' प्रवृत्ति करता है वह 'मुण्डकेवली' होता है // 290 // विवेचन : उत्तमबोधिप्रधान जीवात्मा, भव निर्वेद से संसार को असार जानता है और सोचता है कि आत्मा के सिवाय इस संसार में दूसरी कोई शरण सच्ची नहीं; आत्मा के सिवाय संसार में कोई अपना नहीं / एगो हं नत्थि मे कोइ, नाहमन्नस्स कस्सइ / एवं अदीण-मणसो, अप्पाणमणुसासई / / एगो मे सासओ अप्पा, नाण-दसण-संजुओ / सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा //