________________ 170 योगबिंदु करुणादिगुणोपेतः, परार्थव्यसनी सदा / तथैव चेष्टते धीमान् वर्धमानमहोदयः // 287 // अर्थ : (इस प्रकार वह) उत्तम बोधिसत्त्व करुणादि गुणों से युक्त, सदैव परोपकार परायण, बुद्धिमान, वर्धमान पुण्योदय वाला तथा गुणानुरूप आचरण करने वाला होता है // 287 // विवेचन : जैसे उपर बता चुके हैं कि उत्तमबोधि सम्पन्न, भिन्नग्रंथी महात्मा की भावनादया कितनी उत्तम होती है। अब इस श्लोक में ग्रंथकर्ता ने उनमें और क्या-क्या गुण होते हैं यह बताया है। वे सर्वजीवों के प्रति करुणा से युक्त होते हैं; सभी के दुःखों से उनका हृदय द्रवित हो जाता है; किसी भी प्राणी को दुःखी देखकर, वह चुपचाप नहीं रह सकते / दूसरा गुण परोपकार परायणता बताया है। दुःखों को देखकर, तत्काल उनको सुखी करने की जो चेष्टा है वह परोपकार है। मन से, तन से, धन से, समय, शक्ति और बुद्धि से हर किसी भी उपाय से वह सतत दूसरों के काम आते है / दूसरों के कार्य में, उपयोग में आकर ही उसे चैन पड़ता है; तभी उसे शान्ति का अनुभव होता है कि मैं कृत-कृत्य, हुआ / मेरा जन्म सफल हुआ। परार्थव्यसनी विशेषण यही बताता है कि जैसे चाय, सिगरेट का किसी को व्यसन लग जाता है, उनको पिये बिना उसे चैन नहीं पड़ता / इसी प्रकार इसको परसेवा, परोपकार के कार्य किये बिना चैन नहीं पड़ता / उसके सभी सत्कार्य, परोपकार के कार्य, सेवा के कार्य, बुद्धि-प्रतिभा से युक्त होते हैं / वे जिस भी शुभकार्य को पकड़ेगे बुद्धि से खूब विचार कर, दीर्घबुद्धि से करेंगे / बुद्धिपूर्वक किये गये करुणा प्रधान शुभ कार्यों से स्वाभाविक है कि उनका महोदय-पुण्योदय-महान्उदय वर्धमान रहेगा, बढ़ता ही रहेगा। फिर बताया है कि गुणानुरूप केवल विचार ही नहीं आचरण भी होता है // 287 // तत्तत्कल्याणयोगेन, कुर्वन् सत्त्वार्थमेव सः / तीर्थकृत्त्वमवाप्नोति, परं सत्त्वार्थसाधनम् // 288 // अर्थ : वह (उत्तमबोधिवान जीवात्मा) इस प्रकार अन्य प्राणियों के हित के लिये कल्याणकारक प्रवृत्ति करता हुआ तीर्थंकरत्व को प्राप्त करता है, जो प्राणियों के कल्याण का उत्कृष्ट साधन है // 28 // विवेचन : उत्तमबोधि-सम्पन्न जीवात्मा जब जातपात, कौम, सम्प्रदाय, फिरकापरस्ती और तेरे-मेरे के भेदभाव से उपर उठकर; संकुचित दीवारों से बाहर निकल कर, मानवमात्र ही नहीं, जीव, सत्त्व, प्राणीमात्र के हित के लिये सतत कल्याणमयी प्रवृत्ति करता है, तब अति शुद्ध अध्यवसायों के बल से हृदय ज्ञान निर्मल बन जाता है; भावना इतनी उच्चकोटि की हो जाती है कि वह सर्वसत्त्व हितकारी सर्वोत्कृष्ट अवस्था - तीर्थंकर नाम गोत्र का उपार्जन कर लेता है। वह जीव वहाँ पर तीर्थंकर कर्म बांध लेता है जो सर्वजीवों के हित का परम साधन है। तीर्थंकर की अवस्था तभी प्राप्त होती