________________ योगबिंदु 169 पानी में मीन पियासी मोहे सुनि सुनि आवत हांसि..... इसी भाव को ब्रह्मानंदजी ने भी अपने भजन में कहा है : मृगनाभि में सुगन्धी सूंघे वाहे घास गन्धी दुनियां भयी है अन्धी समझे नहि इशारा ऐसा ही अन्य अनेक भक्तों ने कहा है कि पास में उपाय होने पर भी मनुष्य मिथ्यात्व के कारण उसे देख नहीं पाता और उसके कारण संसार के सैंकड़ों दुःखों को सहता है। कितनी दयनीय स्थिति है संसार की ? कितने दुःख की बात है // 285 // अहमेतानतः कृच्छाद्, यथायोगं कथञ्चन / अनेनोत्तारयामीति वरबोधिसमन्वितः // 286 // " अर्थ : किसी भी उपाय से, जैसे भी योग्य बने वैसे मैं (सर्व जीवों को) इस धर्मतेज से, इस भयंकर दुःख से उगारु, ऐसी भावना उत्तम बोधि युक्त जीवात्मा को होती है // 286 / / विवेचन : श्रेष्ठ बोधि सम्पन्न महात्मा को जगत के कल्याण की आकांक्षा सदैव रहती है कि मैं संसार के जन्म-जरा, मरण, रोग, शोक, आधि-व्याधि-उपाधि आदि संसार के भयंकर अवाच्य दुःखों से पीड़ित सर्व जीवों को, जिसको जिस साध्य की जरूरत हो, उसे उस साधन की प्राप्ति करवाकर, किसी भी उपाय से, धर्म तेज से संसार से पार उतारूं / ऐसी सर्वश्रेष्ठ भावदया उनके हृदय में होती है / कहा भी है : "सविजीव करूँ शासनरसी-ऐसी भावदया दिल में बसी" संत तुकाराम जी ने गाया है कि : 'जगा च कल्याणा संतांची विभूति" श्रेष्ठबोधिसम्पन्न, भावी तीर्थंकरों, भावी अर्हतों, महापुरुषों के मन में हमेशा जगत्कल्याण की उत्कृष्ट भावना रहती है / सभी जीवों को दुःख मुक्त करुं, सभी सुखी रहे, ऐसी भावना सदैव रहती है : सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः / सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत् // उनकी जीवन पर्यन्त ऐसी प्रवृत्ति बनी रहती है / वे अन्तिम श्वास पर्यन्त जगत्कल्याण के कार्य करते रहते हैं // 286 //