________________ 168 योगबिंदु संसारी अन्ध व्यक्ति को चरम चक्षु की जितनी महत्ता है, उतनी ही साधक को सम्यक् दृष्टि की महत्ता है // 283 // अनेन भवनैर्गुण्यं, सम्यक् वीक्ष्य महाशयः / तथाभव्यत्वयोगेन, विचित्रं चिन्तयत्यसौ // 284 // अर्थ : भिन्नग्रंथी महाशय यथार्थ दर्शन सदर्शन से संसार की असारता को सम्यक् तौर पर देखकर, उच्च भव्यत्व योग्यता से संसार की विचित्रता का चिन्तन करता है // 28 // विवेचन : ग्रंथीभेद होने पर जीवात्मा को जब सद्दर्शन-सम्यक्दर्शन-विवेकज्ञान होता है तो उसे कृत्य-अकृत्य, सत्य-असत्य, सार-असार का बोध हो जाता है। जब संसार का यथार्थबोध हो जाता है; उस समय उसे भव-संसार की असारता दृष्टिगोचर होती है। उसे संसार निर्गुण अर्थात् जन्म-जरा-मरण-रोग-शोक- संयोग-वियोग आदि अनेक प्रकार के दुःखों की बहुलता से सारहीन दिखाई देता है; त्याज्य और हेय, गुणहीन लगता है, इसलिये महान् आशय वाला वह उदात्त भिन्नग्रंथी महात्मा उच्च भव्यत्व योग्यता के सहयोग से संसार के भावों की विचित्रता-नानारूपता को अतिक्लिष्ट जानकर, आत्मरूप में ही रमण करता है / तात्पर्य यह है कि जब सम्यक् दर्शन का सूर्योदय जीवन में होता है तब ग्रंथीभेद होने पर जीवात्मा को संसार सार हीन दिखाई देता है और संसार की विचित्रता को जानकर, आत्मभाव को ही श्रेष्ठ मानकर वह उसी की उपासना मे दत्तचित्त रहता है। उसके अध्यवसाय उच्च होते हैं और वह आत्मभाव में ही रमण करता है // 284 // "मोहान्धकारगहने, संसारे दुःखिता बत / सत्त्वाः परिभ्रमन्त्युच्चैः, सत्यस्मिन् धर्मतेजसि // 285 // अर्थ : अहो ! कितने दुःख का विषय है कि सर्वज्ञ प्रणीत ऐसे धर्म-तेज के विद्यमान होने पर भी प्राणी मोहरूपी गहन अन्धकारपूर्ण इस संसार में दुःखी होकर भटकते हैं // 285 // विवेचन : भिन्नग्रंथी महाशय का हृदय प्रतिदिन कोमलता, दया, सहानुभूति आदि गुणों में प्रगतिशील होता जाता है अर्थात् इसकी संवेदनशीलता बढ़ती जाती है। इसलिये संसार में प्राणियों को दुःखी देखकर, उसे खेद होता है; करुणा पैदा होती है कि सांसारिक दुःखों से छुटकारा पाने का उपायरूप धर्मतेज - सर्वज्ञ प्रणीत अहिंसा-संयम-तप रूप धर्म विद्यमान होने पर भी प्राणी मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, अशुभयोग, प्रमादरूप अज्ञानता के कारण संसार के नाना प्रकार के दुःखों का भोग बनते हैं और संसाररूपी चक्र में अनवरत पिसते हैं / कितने दुःख की बात है कि वस्तु उनके पास में है और वे दुःखी हैं / इसी बात का खेद ज्ञानियों को होता है और कभी-कभी उन्हें खेदजन्य हंसी भी आती है। जैसा कि कबीर ने कहा है :