________________ योगबिंदु 167 तात्त्विक परमानन्द की प्राप्ति होती है, जिसका अनुभव उसने कभी भी पूर्व में न किया हो / जैसे कोढ़, ज्वर, क्षय आदि महाव्याधि से बहुत लम्बे समय से अत्यन्त पीड़ित रोगी को रोग का कोई निदान हाथ में न आता हो, ऐसे अवसर पर महापुण्योदय से कोई उच्च कोटि की महान् औषधि हाथ मे लगे और उससे उसका सर्व रोग-शोक दूर हो जाय, बिल्कुल निरोग होने पर उसे जैसे परम शान्ति का, आनंद का अनुभव होता है वैसे ही कर्मरोग से पीड़ित जीवात्मा जब अपूर्वकरणरूप महा औषधि का सेवन करती है और कर्मग्रंथी के भेदन होने पर उसे परम शान्ति, सुख-आनंद का अनुभव होता है / ग्रंथकार ने दोनों की तुलना बड़ी ही उपयुक्त और सुन्दर की है // 280-281 // भेदोऽपि चास्य विज्ञेयो, न भूयो भवनं तथा / तीव्रसंक्लेशविगमात्, सदा निःश्रेयसावहः // 282 // अर्थ : ग्रंथीभेद उसे जानो समझो जो गांठ पुनः न बंधे क्योंकि तीव्र क्लेश जाने से वह सदैव शाश्वत् कल्याण का हेतु है // 282 // विवेचन : उपर ग्रंथीभेद से उत्पन्न आनंद का वर्णन किया है। इस श्लोक में ग्रंथ कर्ता ने कहा है कि केवल ग्रंथी के भेद का ही आनंद नहीं है अपितु यह भी आनंद है कि अब ऐसी 'तीव्रक्लेशकारी गांठ' पुनः नहीं पड़ेगी / तीव्रक्लेश, अति दृढ़ कषायोदय के विरह का ही आनंद नहीं, बल्कि इस बात की भी खुशी है कि अब आत्मा के अध्यवसाय हमेशा निर्वाण पथ के सहयोगी बनेंगे, हेतु बनेंगे // 282 // जात्यन्धस्य यथा पुंसश्चक्षुर्लाभे शुभोदये / सद्दर्शनं तथैवास्य, ग्रन्थिभेदेऽपरे जगुः // 283 // अर्थ : जन्मान्ध पुरुष को शुभोदय-पुण्योदय से चक्षुलाभ होने पर जैसे सद्दर्शन होता है ऐसे ही अन्य मतावलम्बी कहते हैं कि वैसे ही अपुर्नबंधक को ग्रंथीभेद होने पर होता है // 283 // विवेचन : जैसे जन्म से अन्धे व्यक्ति को कदाचित् उसके पूर्वपुण्योदय से कुशल वैद्य की औषधि से आँखों के परदे खुल जाते हैं; चक्षु कमल की भाँति विकस्वर बनते हैं और वह जगत के पदार्थों का सद्दर्शन-सम्यक् दर्शन - यथार्थबोध करता है / जगत की सभी वस्तुओं का यथार्थबोध होने पर उसे जो अवर्णनीय आनंद उपलब्ध होता है, आनंद के साथ-साथ उसे सत्यअसत्य का भान-बोध भी हो जाता है। इसी प्रकार अनादि काल से जीव मिथ्यात्व से अन्ध बना हुआ है शुभ पुण्य के योग से उसे सद्गुरु का संयोग मिलता है फिर यथाप्रवृत्तिकरण-करता हुआ अपूर्वकरण के बल से भयंकर संसार की कर्मग्रंथी को जब साधक भेदता है तब उसे अपूर्व आनंद का हेतु रूप सम्यक् दर्शन प्राप्त होता है / तब उसे देव, गुरु और धर्म का सच्चा बोध भी प्राप्त होता है। संसार के प्रलोभनों में वह फिर फंसता नहीं / जल कमलवत् रहने की सम्यक् दृष्टि उसे प्राप्त होती है।