________________ 166 योगबिंदु विवेचन : बोधि-सम्यक्त्व, उसकी स्वाभाविक विविधता से ही विविध सिद्धि होती है। हेतुभेद सत्संग, सद्गुरु का योग, धर्मश्रवण आदि की विविधता से नहीं, यह बात युक्तिपूर्वक सिद्ध हुई है और इस प्रकार सांसिद्धिक योग्यता की विविधता सिद्ध होने पर फलभेद सहज सिद्ध है। योग्यता विविध है इसलिये निमित्तों की तुल्यप्राप्ति होने पर भी फल भिन्न-भिन्न आता है। एक कक्षा में एक अध्यापक, एक सी पुस्तके पढ़ाते हैं / सभी लड़कों को तुल्य ज्ञान देता है लेकिन सभी लड़के अपनी-अपनी योग्यातनुसार ही उसे ग्रहण करते हैं / एक लड़का इतना होशियार निकलता है कि उसे छात्रवृत्ति प्राप्त होती है और एक बिल्कुल कमजोर रह जाता है, इसमें कारण योग्यता की विविधता है उसके सिवाय कोई कारण नहीं / उत्तमबोधि-क्षायिक सम्यक्त्व जो कि आत्मा का सहज स्वभाव है उसी से मोक्ष की सिद्धि होती है अन्य कारणों से नहीं / उसकी विविधता भी स्पष्ट है // 279 // तथा च भिन्ने दुर्भेदे, कर्मग्रन्थिमहाचले / तीक्ष्णेन भाववज्रेण, बहुसंक्लेशकारिणि // 280 // आनन्दो जायतेऽत्यन्तं, तात्त्विकोऽस्य महात्मनः / सद्व्याध्यभिभवे यद्वद् व्याधितस्य महौषधात् // 281 // अर्थ : महाबलवान, महाक्लेशकारी, दुर्भेद्य ऐसी कर्मग्रंथी को तीक्ष्ण भावरूपी वज्र से भेदने पर भिन्नग्रंथी महात्मा को ऐसा तात्त्विक परमानन्द प्राप्त होता है जैसे रोगी को महान् औषधि से महाव्याधि निवृत्त होने पर होता है // 280-281 / / विवेचन : इस प्रकार की आत्मा की योग्यता, आत्मा से कथंचित् अभिन्न होने से, उस योग्यता का फलरूप मोक्षमार्ग में गमन करने की क्रिया, उसका फल निर्जरा और अन्त में मोक्ष है और इन सभी फलों का कारण आत्मा की योग्यता है / उसी योग्यता के बल से ही निमित्तों की कारण-सामग्री पाकर, आत्मा ग्रंथीभेद करती है। इसी को स्पष्ट करने के लिये ग्रंथकार ने कहा है कि आत्मा अनादिकाल से राग-द्वेष के कारण आठ प्रकार के कर्मदलों का सञ्चय करती है। वह राग-द्वेष मोह की कर्मग्रंथी जीव को संसार के अवाच्य, अत्यन्त क्लिष्ट दुःखों को देने वाली है, महा बलवान है / “यततोऽपि कौन्तेय ! पुरुषस्य विपश्चितः, इन्द्रियाणि प्रमाथिनी हरन्ति प्रसभं मन" प्रयत्नशील हो, बुद्धिमान विद्वान् हो फिर भी इन्द्रियों के विषय इतने बलवान है कि जबरदस्ती उसे खिंच लेते हैं / बड़े-बड़े योगी, मुनि, ऋषि, तपस्वी भी इसके सामने हार जाते है। इतनी बलवान है यह कर्मग्रंथी। वह जितनी बलवान है, उतनी ही क्लेशकारी है / इसी के कारण जीव चौरासी के बहुक्लेशों को सहता है। दुर्भेद्य तो इतनी है, जैसे हिमालय / परन्तु फिर भी भिन्नग्रंथी महात्मा, जैसे शकेन्द्र अपने तीक्ष्ण वज्र से पर्वत की चट्टानों को काट देता है, ऐसे अपूर्वकरण रूपी भाववज्र से जब इस दुर्भेद्य, अतिबलवान, महाक्लेशकारी कर्मग्रंथी को भेदता है तो उसे अपूर्व