________________ 164 योगबिंदु विवेचन : अगर सभी जीवों में हम भव्यत्व स्वभाव का सर्वथा अभेद मानेंगे अर्थात उसकी (भव्यत्व योग्यता की) विविधता को न स्वीकारेंगे; उसे एक स्वरूपी ही मानेंगे, तो भव्यत्वयोग्यता का ही अभाव सिद्ध होता है / अर्थात् सभी जीव एक ही स्वरूप वाले होने चाहिये, फिर या तो सभी जीव संसारी होंगे या सभी एक साथ मुक्त हो जायेंगे / परन्तु संसार की विविधता को देखते हुये योग्यता का अभेद अन्यथा हो जाता है। अगर कोई ऐसा कहे कि निमित्तों और सहकारी कारणों के कारण सभी में भिन्नता और विचित्रता दिखाई देती है। किसी को अनुकूल निमित्त, अनुकूल परिस्थिति, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, सत्संग, सद्गुरु का योग, देवगुरुधर्म के साधन मिलते हैं और किसी को नहीं मिलते, इसलिये जीवों में भिन्नता आती है। परन्तु भव्यत्व योग्यता को विविध स्वरूप वाली मानने की कोई जरुरत नहीं है तो उसके उत्तर में ग्रंथकार ने कहा है कि काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत् और पुरुषार्थ इन पांचों कारणों का एक साथ संयोग होना भी तो उसी योग्यता के ही आधीन है। योग्यता के बिना सभी कारण मिलने पर भी कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती इसलिये सभी कारणों की सफलता भव्यत्व योग्यतारूप स्वभाव के ही आधीन है। तात्पर्य यह है कि कार्य से कारण का बोध होता है / संसार की विविधतारूप कार्य को देखकर, भव्यत्वरूप योग्यता की विविधता का ज्ञान होता है। अगर कोई कहे कि यह विविधता, योग्यता की विविधता से उत्पन्न नहीं, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से उत्पन्न है, तो सभी बाह्य कारण भी अन्तरंग कारण के ही आधीन होते हैं / बीज के अन्दर अगर उसकी अपनी योयता नहीं होगी तो बाहरी निमित्त कारण उसके लिये कितने उपयोगी सिद्ध होगें? यह स्पष्ट बात है, बुद्धि से सोच लें। इसलिये यह योग्यता जीव की स्वाभाविक है और स्वभाव से ही विचित्र स्वरूप वाली है क्योंकि सभी प्राणियों में विविध रूपों में प्रकट होती है // 276 // अन्यथा योग्यताभेदः सर्वथा नोपपद्यते / निमित्तोपनिपातोऽपि यत् तदाऽक्षेपतो ध्रुवम् // 277 // अर्थ : योग्यता का अभेद अन्यथा भी सर्वथा घटित होता नहीं है, क्योंकि निमित्तों की उपलब्धि भी योग्यता की अपेक्षा रखती है। अर्थात् निमित्तों का संयोग भी योग्यता की अपेक्षा रखता हैं // 277 // विवेचन : दूसरे प्रकार से मानने पर, अर्थात् अगर ऐसा माने कि योग्यता मूल से एकरूप है परन्तु निमित्त कारणों से विचित्र प्रकार की हो जाती है, तो वह भी घटित नहीं होता अन्यथा अर्थात् कालादि निमित्तों की विचित्रता मानने पर भी योग्यता का अभेद सर्वथा घटित नहीं होता क्योंकि निमित्तों का उपनिपात-एक साथ प्राप्ति भी भव्यत्वयोग्यता की मौलिक विचित्रता बिना अशक्य है। योग्यता मौलिक रूप से अगर एकरूपवाली हो, तो फल में विविधता कैसे आ सकती है ? सहकारी