________________ योगबिंदु वरबोधिसमेतो वा तीर्थकृद् यो भविष्यति / तथाभव्यत्वतोऽसौ वा बोधिसत्त्वः सतां मतः // 274 // अर्थ : सुंदर, श्रेष्ठ ज्ञान सहित भविष्य में तीर्थंकर पद के योग्य, क्षायिक सम्यक्त्व को धारण करने वाले तथा इस प्रकार की भव्यत्व योग्यता से युक्त आत्मा को सन्तों ने बोधिसत्त्व कहा है।॥२७४।। विवेचन : भविष्य में जो तीर्थंकर बनने वाला है और क्षायिक समकित का स्वामी है तथा भव्यत्व को धारण करता है वह बोधिसत्व है। "भव्यत्वं नाम सिद्धिगमन योग्यत्वमनादिपारिणामिको भावः" भव्यत्व अर्थात् सर्वकर्मदलों का संपूर्ण नाश करके, परमनिर्वाणरूप मोक्ष को प्राप्त करने का जीवात्मा का जो स्वभाव है, वह अनादिकाल से जीव के साथ पारिणामिक भाव से सत्ता में अव्यक्त रहा हुआ है / वह योग्य काल के परिपक्व होने पर, आत्मा पर लगे अनादिकाल के कर्ममल को शुद्ध करके तथाप्रकार की योग्य शुद्धता पाकर, आत्मा की सहज शक्ति को प्रकट करता है / इस प्रकार की तथाभव्यत्व की योग्यता से युक्त आत्मा ही बोधिसत्त्व है, ऐसा सन्तों का कहना है // 274 // सांसिद्धिकमिदं ज्ञेयं सम्यक चित्रं च देहिनाम् / तथाकालादिभेदेन बीजसिद्ध्यादिभावतः // 275 // अर्थ : यह सम्यक् भव्यत्व प्राणियों को सांसिद्धिक-स्वाभाविक है तथा कालादिभेद से बीजसिद्धि की भाँति नाना प्रकार का है // 275 // विवेचन : मोक्षप्राप्ति की योग्यता को भव्यत्व कहा है / वह भव्यत्व स्वभाव जीवात्मा में अनादिकाल से सहजभाव से ही विद्यमान होता है। उसकी उत्पत्ति आत्मसमकालीन मानी है / पीछे से किसी निमित्त से उसका आगमन नहीं होता / यह योग्यता स्वभाव से ही विचित्र-नाना प्रकार की है और सभी जीवों में विविधरूपों में प्रकट होती है। किसी में यह योग्यता अधिक होती है तो किसी में न्यून किसी में व्यक्त, तो किसी में अव्यक्त होती है / बीज में जैसे विचित्र वृक्षादि उत्पन्न करने की स्वाभाविक शक्ति है और काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ आदि पांच सामग्री को प्राप्त करके, फल रूप सिद्धि को प्राप्त करता है, उसी प्रकार स्वाभाविक ऐसी जो विचित्र भव्यत्व योग्यता है वह भी काल, स्वभाव आदि कारणों को प्राप्त करके, आत्मा के नाना स्वरूपों में प्रकट होती है // 275 // सर्वथा योग्यतऽभेदे तदभावोऽन्यथा भवेत् / निमित्तानामपि प्राप्तिस्तुल्या यत्तन्नियोगतः // 276 // अर्थ : योग्यता का सर्वथा अभेद मानने पर चित्रबीजादि भाव अन्यथा-व्यर्थ हो जायेंगे क्योंकि योग्यता (तुल्य) होने पर ही निमित्तों की प्राप्ति तुल्य होती है // 276 / /