________________ योगबिंदु 161 अयमस्यामवस्थायां बोधिसत्त्वोऽभिधीयते / अन्यैस्तल्लक्षणं यस्मात् सर्वमस्योपपद्यते // 270 // अर्थ : इस अवस्था में पहुंचे हुये भिन्नग्रंथी (सम्यकदृष्टि) जीव को बौद्ध-लोग बोधिसत्त्व कहते हैं। क्योंकि सम्यक्दृष्टि के सभी लक्षण (बोधिसत्त्व में) घटित होते हैं, उपलब्ध होते हैं / / 270 // विवेचन : जैन सिद्धान्त में जिसे सम्यक्दृष्टि कहा है, बौद्ध उसे बोधिसत्त्व कहते हैं क्योंकि जो-जो गुण, अवस्था, लक्षण सम्यक्दृष्टि के बताये हैं वे सभी गुण और लक्षण बोधिसत्त्व में पाये जाते हैं। ग्रंथकार की कितनी उदार और विशाल दृष्टि है / उनको शब्दभेद से कोई प्रयोजन नहीं, वे तो वस्तु के हार्द तक पहुँचते हैं। महापुरुषों को तो नवनीत चाहिये, चाहे किसी भी साधन से निकाला गया हो // 270 // कायपातिन एवेह बोधिसत्त्वाः परोदितम् / / न चित्तपातिनस्तावदेतदत्रापि युक्तिमत् // 271 // अर्थ : बौद्धों ने बोधिसत्त्व को कायपाती (केवल काया से पतित होनेवाला) कहा है। चित्तपाती (चित्त से पतित होने वाला) नहीं, यह तो यहाँ (सम्यक्दृष्टि में) भी युक्तियुक्त है // 271 // विवेचन : संसार में रहने पर भी बोधिसत्त्व याने सम्यक्दृष्टि की मानसिक स्थिति को "तप्तलोहपदन्यासतुल्यावृत्तिः क्वचिद्यदि" कहा है अर्थात् जैसे अग्नि से तप्त लोहे पर पैर रखना अत्यन्त दुःखदायी है इसलिये मनुष्य हमेशा उससे दूर रहने का प्रयत्न करता है। इसी प्रकार बोधिसत्त्व संसार की मोहमाया से दूर रहता है; परन्तु कर्मसंयोग से, इच्छा न होने पर भी, संसार में कुटुम्बीजनों के लिये, समाज के लिये अपना कर्तव्य समझकर, उसे कभी काया से सावघ अनिष्ट क्रिया करनी पड़े तो भी वह चित्त में क्रूर परिणाम वाला नहीं होता, इसलिये उसका कर्मबंध भी कोमल होता है (बौद्ध लोग इसीलिये उसे कायपाती मानते है, परन्तु चित्तपाती नहीं सम्यक् यही वस्तु सम्यक्दृष्टि में होती है क्योंकि सम्यक्दृष्टि भी कर्मवश कभी अन्यथा प्रवृत्ति करता है, परन्तु उसके चित्त में धर्म का जो राग है, वह कभी जाता नहीं / सांसारिक कार्यप्रवृत्ति करने पर भी उसके चित्त के अध्यवसाय इतने दूषित नहीं होते / इस प्रकार बोधिसत्त्व और सम्यक्दृष्टि के हृदय की निर्मलता और परिणामशुद्धि एक जैसी है। इसलिये जो बोधिसत्त्व है, वह सम्यक्दृष्टि है, जो सम्यक्दृष्टि है वही बोधिसत्त्व है // 271 // परार्थरसिको धीमान् मार्गगामी महाशयः / गुणरागी तथेत्यादि सर्वं तुल्यं द्वयोरपि // 272 //