________________ 160 योगबिंदु सागरोपमकोटीनां कोट्यो मोहस्य सप्ततिः / अभिन्नग्रन्थिबन्धो यद् न त्वेकोऽपीतरस्य तु // 268 // अर्थः जिसने ग्रंथीभेद नहीं किया; उसके मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट बंध 70 कोटा कोटी सागरोपम है परन्तु भिन्नग्रंथी वाले को तो एक कोटा-कोटी सागरोपम भी नहीं होता // 268 // विवेचन : जिस आत्मा ने अपूर्वकरण द्वारा रागद्वेष की गांठ को खोला नहीं - भेद नहीं किया, वह सातों या आठों कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को बांधता है / उसमें मोहनीय कर्म की उत्कृष्टस्थिति 70 कोटा-कोटी सागरोपम की है; यह बात कर्मग्रंथों में प्रसिद्ध है / इस प्रकार वह आठ कर्मों को उत्कृष्टस्थिति से बांधता है। परन्तु जिसने तीनों करणों से ग्रंथीभेद करके, सम्यक्दर्शन प्राप्त किया है। वह आत्मा कभी मोहनीय कर्म के उदय से सम्यक् दर्शन को छोड़कर, मिथ्यात्व को प्राप्त कर ले अर्थात् कभी समकित से पतित होकर, मिथ्यात्व के आधीन हो जाय तो भी वह अधिक से अधिक मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बंध एक कोटा-कोटी सागरोपम भी नहीं करता, उससे भी कम ही होता // 268 // तदत्र परिणामस्य भेदकत्वं नियोगतः / बाह्यं त्वसदनुष्ठानं प्रायस्तुल्यं द्वयोरपि // 269 // अर्थ : दोनों का (भिन्नग्रंथी और अभिन्नग्रंथी का) बाह्याचार (अर्थोपार्जनादि) तो प्रायः तुल्य ही है। इसलिये निश्चित ही यहाँ (दोनों में) परिणाम की भिन्नता है // 269 // विवेचन : भिन्नग्रंथी और अभिन्नग्रंथी इन दोनों के बाह्याचार तो समान ही है / बाह्याचारों से कोई नहीं जान सकता कि वह सम्यक्दृष्टि है या मिथ्यादृष्टि, क्योंकि सम्यक्दृष्टि भी कभी पतित होने पर या परिस्थिति की प्रतिकूलता तथा अन्य कारणों से विवश होकर, अन्यथा प्रवृत्ति कर सकता है और मिथ्यादृष्टि बाहर से अपने आप को धार्मिक दिखाने के लिये सदनुष्ठानों को भी कर सकता है। बाह्याचारों से हम गलत निर्णय ले सकते हैं इसलिये महापुरुषों ने उन दोनों की पहचान परिणाम की भिन्नता से बताई है / अर्थात् दोनों के बाह्य आचरण तुल्य होने पर भी दोनों के हृदय के भावों में, अध्यवसायों में, हृदयशुद्धि में बहुत बड़ा अन्तर होता है / सम्यक्दृष्टि के अध्यवसाय सामान्यतः शुद्ध ही होते हैं इसलिये वह अल्पकर्म बांधता है, परन्तु जिसने ग्रंथीभेद नहीं किया उसके अध्यवसाय अशुद्ध और मलीन होते हैं और इसलिये वह कर्म का उत्कृष्ट बंध करता है। एक ही कार्य को दोनों बाहर से तुल्य करते हैं परन्तु कर्मबंध दोनों का अलग-अलग होता है क्योंकि हृदय की शुद्धिअशुद्धि और भावों की तारतम्य स्थिति के अनुसार कर्मबंधन होता है / अतः भिन्नग्रंथी और अभिन्नग्रंथी जीवों की भिन्नता उनके शुभाशुभ परिणामों से ही निश्चित होती है // 269 / /