________________ 158 योगबिंदु विवेचन : पूर्वोक्त प्रशस्तयोग मार्ग में आगे बढ़ते हुये सुदेव, सुगुरु, सुधर्म और धार्मिक आत्मा की सेवाभक्ति करता हुआ; परमात्मा की पूजा सेवा करता हुआ; गुरुओं का उपदेश सुनता हुआ; उत्तम आशय-प्रशस्त अध्यवसाय-भावना द्वारा, जिसका वर्णन आगे किया जायगा, ऐसे यथाप्रवृत्तिकरण को व्यतिक्रान्त करके, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण करता हुआ जीव सम्यक्दृष्टि को प्राप्त करता है, ऐसा जिनेश्वर देवों का उद्बोधन-कथन है // 263 // करणं परिणामोऽत्र सत्त्वानां तत् पुननिधा / यथाप्रवृत्तमाख्यातमपूर्वमनिवृत्ति च // 264 // अर्थ : प्राणियों के परिणाम विशेष को यहाँ करण कहा है; वह तीन प्रकार का है; यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण // 264 // विवेचन : आत्मारूप कर्ता को फल प्रदान करने में जो सर्वोत्तम साधन है-उसे करण कहते हैं / आत्मा को मोक्ष की साधना करनी है, अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करना है और वह आत्मा के शुद्ध, शुद्धतर, शुद्धतम अध्यवसायों के आधीन है / जैसे-जैसे आत्मा के परिणाम-मन के अध्यवसाय-विचार शुद्ध होते जाते है वैसे-वैसे वह मोक्ष के समीप जाता है। मोक्ष का सर्वमुख्य कारण सम्यक्दर्शन है और उस सम्यक् दर्शन की प्राप्ति यथा प्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणों से होती है // 264 // एतत् त्रिधाऽपि भव्यानामन्येषामाद्यमेव हि / ग्रन्थिं यावत् त्विदं तं तु समतिक्रामतोऽपरम् // 265 // अर्थ : ये तीन करण भव्यात्माओं को ही होते हैं; अन्य अभव्यों को तो प्रथम (यथाप्रवृत्ति करण) ही होता है; यह (प्रथम करण) ग्रंथीपर्यन्त ही पहुंचता है। दूसरा (भव्य) तो ग्रंथी का उल्लंघन करके आगे बढ़ जाता है // 265 / / विवेचन : ये तीन करण- यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण मोक्ष की योग्यता धारण करने वाले भव्य जीवों को ही प्राप्त होते हैं / परन्तु जिनमें मोक्ष की योग्यता नहीं वैसे अभव्यजीव तो प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण पर्यन्त ही पहुँचते हैं / उससे आगे न जा सकने के कारण वे पीछे हट जाते हैं / ग्रंथी से वापिस होकर, यथाप्रवृत्तिकरण के योग से उसने जिनकर्मदलों की स्थिति को खपाया था, वैसी आठ कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को वह अपने क्लिष्ट अध्यवसायों द्वारा बांधता है / यथाप्रवृत्तिकरण - अनादि संसार में भटकते हुये जीवात्मा जब संज्ञी पंचेन्द्रियपना प्राप्त करता है, तब वैराग्यपूर्ण परिणामों से (भव्य तथा अभव्य) जीव यथाप्रवृत्ति-करण को प्राप्त करता है परन्तु अभव्यजीव ग्रंथी तक ही पहुंचता है आगे नहीं बढ़ पाता जब कि भव्यजीव ग्रंथीभेद करके,