________________ योगबिंदु 157 सद्भाव के योग से प्रशस्तबुद्धि (सम्यक्दृष्टि जीव) इसको (गुरुदेवादि पूजन को) ही सारभूत (जीवन सर्वस्व) समझकर, अपना समय नष्ट नहीं करता // 261|| विवेचन : जब आत्मा में सम्यक्त्व प्रकट होता है तब वह गुरुओं की सेवाभक्ति - वैयावच्य, आदर, मान, सत्कार, तथा वीतराग देवों के पूजन आदि को ही जीवन का सर्वस्व सार समझता है, इसलिये संसार के अन्य कार्यों में अपना क्षणमात्र समय भी व्यर्थ होने नहीं देता / सतत् अप्रमत्त रहकर, विवेक पूर्वक तथा भावोल्लास पूर्वक त्रिकाल देवपूजन, प्रतिक्रमण, सामायिक, धर्मश्रवण, इच्छारोध रूप व्रत, पच्चखाण, तप, जप, ध्यान आदि में अपने समय का सदुपयोग करके, जीवन को सफल बनाता है // 261 // शक्तेन्यूनाधिकत्वेन नात्राप्येष प्रवर्तते / प्रवृत्तिमात्रमेतद् यद् यथाशक्ति तु सत्फलम् // 262 // अर्थ : किसी जीवात्मा की शक्ति कदाचित न्यून हो, अन्य जीवात्मा की शक्ति कदाचित अधिक भा हो, उसे गिनने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ तो सद्योग में जो यथाशक्ति प्रवृत्ति होती है, उसी का आख्यान करना है, क्योंकि वही सत्फल देने में समर्थ है // 262 // अर्थात् शक्ति की न्यूनाधिकता से सम्यकदृष्टि यहाँ (गुरुदेवादि पूजन में) प्रवृत्त नहीं होता। उसकी प्रवृत्तिमात्र यथाशक्ति है, इसलिये सफल है // 262 // विवेचन : सभी भव्यात्माओं की शक्ति समान नहीं होती / कर्मों के क्षयोपशम के अनुसार कोई व्यक्ति न्यूनशक्ति और कोई अधिक शक्तिवाला होता है / इसलिये सम्यक्दृष्टि आत्मा गुरुदेवादि के पूजन, तप, जप, धर्मानुष्ठानों को अपनी शक्ति की न्यूनाधिकता से नहीं करता अर्थात् शक्ति अधिक हो तो न्यून नहीं और न्यून हो तो अधिक नहीं करता / जितनी शक्ति वीर्योल्लास - भावोल्लास का वह स्वामी है उसको छुपाये बिना भावपूर्वक वह धर्मक्रिया करता है। क्योंकि अगर कोई भी कार्य या प्रवृत्ति अपनी शक्ति को देखे बिना ही अर्थात् शक्ति को भांपे बिना ही की जाती है तो वह केवल यांत्रिक क्रिया मात्र रहती है, उसमें भावोल्लास का सातत्य नहीं रहता / ऐसी भावशून्य किया फलदायक नहीं होती / इसलिये सम्यक्दृष्टि जो भी धर्मक्रिया करता है वह अपनी शक्ति को छुपाये बिना, शक्ति के अनुसार, वीर्योल्लास पूर्वक करता है। इसलिये वह प्रत्येक क्रिया देवपूजा, गुरुभक्ति तप, जप आदि को करता हुआ पुण्यानुबंधी पुण्य रूप सत्फल को प्राप्त करता है // 262 / / एवंभूतोऽयमाख्यातः सम्यग्दृष्टिर्जिनोत्तमैः / यथाप्रवृत्तिकरणव्यतिक्रान्तो महाशयः // 263 // अर्थ : जिनेश्वर देवों ने यथाप्रवृत्तिकरण को व्यतिक्रान्त करने वाले, महान् आशय वाले ऐसे पूर्वोक्त आत्मा को सम्यक् दृष्टि कहा है // 263||