________________ 156 योगबिंदु रेत से पूरी तरह से भर गई है, वह व्यक्ति पास में खड़ी हुई अप्सरा जैसी सुन्दर स्त्री रत्न को भी नहीं देख सकता / ऐसे ही जिस आत्मा का सम्यक्दर्शन रूपी ज्ञान लोचन, मिथ्यामोह रूपी वायु के प्रबल उदय से, अज्ञानरूपी रेत से पूर्ण बंद है, वह व्यक्ति जीवाजीवादि तत्त्वज्ञान को नहीं जान सकता / आत्मज्ञान पास में होने पर भी मिथ्यात्व के कारण नहीं देख पाता / परन्तु उपद्रव शान्त होने पर और रेत आखों में से निकालने पर, पास में रही वस्तु को सम्यक् प्रकार से देखता है / वैसे ही जीवात्मा के उपर से जब महामोह का उदय टलता है, अज्ञान और अविवेक दूर हो जाता है, तब सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र, उपयोग, आत्मवीर्य, तप, जप, स्वाध्याय आदि सभी अनुष्ठान अनुभव में आते हैं। भाव-सार यह है कि सम्यक्दृष्टि का सम्यक्दर्शन कारण विशेष से कभी थोड़े समय के लिये लोप भी हो जाय तो भी कुछ समय पश्चात् वह पुनः वह उसे प्राप्त कर लेता है। सदा के लिये वह पतित नहीं रहता // 259 // भोगिनोऽस्य स दूरेण भावसारं तथेक्षते / सर्वकर्तव्यतात्यागाद् गुरुदेवादिपूजनम् // 260 // अर्थ : वह (सम्यक्दृष्टि जीव) भोगी के स्त्रीरत्न की भांति गुरुदेवादिपूजन को सर्वश्रेष्ठ मानता है और सभी कर्तव्य कार्यों को छोड़कर भी उनका पूजन करता है // 260 // विवेचन : जैसे भोगी पुरुष संसार में स्त्रीरत्न को ही सर्वश्रेष्ठ मानता है और उसकी प्राप्ति के लिये और प्राप्त को प्रसन्न रखने के लिये वह करने योग्य कार्यों की परवाह न करके भी सर्वप्रथम उसे प्रसन्न रखता है। उसके लिये अपने कर्तव्य कार्यों को भी छोड़ देता है, इसी प्रकार सम्यक्दृष्टि जीव गुरु देवादि के पूजन, वन्दन, सत्कार, सेवाभक्ति आदि को ही जीवन का सार समझता है और उनके लिये सर्वस्व त्याग करने के लिये तत्पर होता है। जैसे भोगी व्यक्ति स्त्री के लिये सर्वस्व त्याग करने के लिये तैयार होता है वैसे ही देवगुरु आदि के पूजन के लिये सम्यक् दृष्टि जीव हमेशा सर्वस्व त्याग करने को तत्पर रहता हैं // 260 / / निजं न हापयत्येव कालमत्र महामतिः / सारतामस्य विज्ञाय सद्भावप्रतिबन्धतः // 261 // अर्थ : सद्भाव के योग से महामति (सम्यक्दृष्टि जीव) इसको (गुरुदेवादिपूजन को) ही सारभूत (जीवन सर्वस्व) समझकर, क्षणमात्र भी अपना समय व्यर्थ नहीं गंवाता / अथवा