________________ योगबिंदु 155 प्रवृत्ति धर्म से अन्यथा हो और उसे 'धर्म पर राग है' यह कैसे ? इस शंका को अधिक स्पष्ट करने के लिये ग्रंथकार दृष्टान्त देते है : न चैवं तत्र नो राग, इति युक्त्योपपद्यते / / हविःपूर्णप्रियो विप्रो, भुङ्क्ते यत् पूयिकाद्यपि // 258 // अर्थ : धर्म पर राग नहीं ऐसा नहीं; युक्ति से यह सिद्ध है / घृतपूर्ण वस्तु जिस को प्रिय है, वह ब्राह्मण रुखी रसविहीन वस्तु भी खाता ही है // 258 // विवेचन : मोहनीय कर्म की प्रबलता से अथवा भोगावली कर्मों के उदय से सम्यक् दृष्टि जीव की प्रवृत्ति कदाचित् लोकाचार अथवा धर्म के विरुद्ध दिखाई दे, परन्तु उसे धर्म पर राग नहीं ऐसा एकान्तिक नहीं कह सकते / धर्म पर उसे पूर्ण राग है। यह वस्तु युक्ति से सिद्ध है, जैसे ब्राह्मण को घी और मिष्ठान बहुत प्रिय है; लेकिन फिर भी उसे संयोगानुसार, यज्ञयाग की विधि करते हुये आवश्यक प्रसंग पर सोमरस पीना पड़ता है; जिसका स्वाद बिगड़ा होता है ऐसा बासी, रूखा और गौमूत्र आदि जो कि मन को अच्छा नहीं लगता और जिसे मुख के पास ले जाने में भी ग्लानि होती है, ऐसा आहार बिना इच्छा के करना ही पड़ता है। परन्तु ब्राह्मण को इससे घृत, मिष्टान्न, घेवर आदि पर जो अन्तः करण का प्रेम है; वह खत्म-नष्ट नहीं हो जाता, कम नहीं हो जाता / इसी प्रकार सम्यकदृष्टि जीव कर्मवशात् अथवा परिस्थितिवशात् कदाचित अन्यथा प्रवृत्ति करे, तो इससे वीतराग परमात्मा की वाणी में जो उसकी अनन्य श्रद्धा और प्रेम है वह कम या नष्ट नहीं हो जाता। कहने का तात्पर्य यह है कि सम्यक् दृष्टि जीव चाहे जहाँ जो भी करे परन्तु उसकी वीतराग पर श्रद्धा-प्रेम अटूट होता है // 258 // पातात् त्वस्येत्वरं कालं भावोऽपि विनिवर्तते / वातरेणुभृतं चक्षुः स्त्रीरत्नमपि नेक्षते // 259 // अर्थ : (सम्यक्दर्शन के) पतन से उसका (सम्यग्दृष्टि का) भाव (तत्त्व श्रद्धा) भी थोड़े समय के लिये निवृत्त हो जाता है, जैसे पवन द्वारा उड़ाई हुई रेत से जिसकी आँखे भर गई हो, वह व्यक्ति (पास में रही) स्त्रीरत्न को भी नहीं देख पाता // 259 / / विवेचन : कभी मिथ्यात्व मोहनीय कर्म की प्रबलता से जीवात्मा सम्यक्दर्शन से भ्रष्ट हो जाय, तो जब तक वह उत्तम कोटि का सम्यक्त्व जो कभी जाने के बाद जाता नहीं, प्राप्त न कर ले तब तक थोड़े समय के लिये - अपार्धपुद्गलपरावर्त तक उसका शुद्ध श्रद्धा रूपी भाव निवृत्त हो जाता है, चला जाता है और शुद्ध श्रद्धारूपी कारण के जो कार्य है जैसे धर्मश्रवण, देवपूजा, गुरुभक्ति, तप, जप आदि वह प्राप्त नहीं कर सकता। जैसे अत्यन्त तुफानी आंधी से जिसकी आँखे