________________ 154 योगबिंदु उपदेशानुसार चलता है; तन, मन, न्यौछावर कर देता है; जीवन अर्पण कर देता है; वह तीन भुवन के राजा के भोग से भी अनन्तगुना अधिक आनन्द का अनुभव करता है। इन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव आदि के सुख जिसके सामने व्यर्थ हैं ऐसी सर्वकर्मक्षय करने वाली मोक्षलक्ष्मी की संगति का लाभ प्राप्त करता है / इसलिये जिनोक्ति में विशेष सामर्थ्य हैं ||255 // हेतुभेदो महानेव-मनयोर्यद् व्यवस्थितः / चरमात् तद् युज्यतेऽत्यन्तं, भावातिशययोगतः // 256 // अर्थ : इस प्रकार इन दोनों में (दो प्रकार के श्रवण में) बहुत बड़ा हेतु भेद रहा हुआ है / अन्तिम भेद से संसार में चरमपुद्गलपरावर्त में आने पर ही भव्यात्मा को भावों के अतिशय योग से धर्मश्रवण में प्रेम होता है, यह युक्ति युक्त है / / 256 // विवेचन : पूर्वोक्त दो प्रकार के श्रवण में अर्थात् प्रथम शृंगारिक गायनों का सुनना और दूसरा सद्गुरु के मुख से वीतराग परमात्मा की वाणीरूप सत्यधर्म का सुनना; इन दोनों (प्रकार के श्रवणों) में महान् अन्तर है। क्योंकि वीतराग परमात्मा की वाणीरूप शास्त्रश्रवण में प्रीति होना बहुत दुर्लभ है। जब भव्यात्मा में उच्च अतिशय भावों का योग हो, तब उसे वीतराग की वाणी में अत्यन्त प्रीति होती है और ऐसे उच्च, अतिशय भावों का योग जब जीव चरमपुद्गलपरावर्त में आता है, तब उसे प्राप्त होता है। जो कि बहुत भवों की लम्बी श्रम साध्य-कष्ट साध्य साधना के पश्चात् ही मिलता है / / 256 // धर्मरागोऽधिकोऽस्यैवं, भोगिनः स्त्रयादिरागतः / भावतः कर्मसामर्थ्यात्, प्रवृत्तिस्त्वन्यथाऽपि हि // 257 // अर्थ : भोगी व्यक्ति को स्त्री आदि पर जो राग होता है; उससे भी अधिक राग सम्यक्दृष्टि को धर्म पर होता है; कर्म वशात् प्रवृत्ति अन्यथा होने पर भी उसका चित्त धर्मानुरागी ही होता है ऋऋ|२५७॥ विवेचन : संसार के सुखों को ही परम सुख मानने वाले भोगी व्यक्ति को स्त्री, नाटक, सिनेमा, संगीत, ऐश-आराम, खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने आदि भौतिक वस्तुओं में जितना राग होता है उससे भी अधिक राग सम्यक्दृष्टि को धर्म पर होता है / कदाचित् पूर्वकर्मों की प्रबलता से, परिस्थिति की अनुकूलता न होने से अथवा कर्तव्य पालन की दृष्टि से उसकी प्रवृत्ति धर्म से अन्यथा दिखाई दे, अर्थात् कर्मवशात् चारित्रधर्म - पंच महाव्रत, पांच समिति, तीनगुप्ति, नववाड़ से परम शुद्ध ब्रह्मचर्य दशविध यतिधर्म तथा श्रावक के 12 व्रत ग्रहण न कर सके परन्तु फिर भी श्री कृष्ण भगवान् की भांति धर्मप्रेम तो उसके चित्त में शरीर में अस्थि मज्जा की भाति होता है // 257 //