________________ योगबिंदु 153 अर्थ : सम्यक्दृष्टि को जितनी इच्छा जिनेश्वरोक्त उपदेश के सुनने में होती हैं, उतनी (सुनने की इच्छा) भोगी को किन्नरादि के गायनादि में नहीं होती क्योंकि उसमें विशिष्ट कारण है // 254 // विवेचन : वैसे तो संगीत विषय ही ऐसा है कि मनुष्य, तिर्यञ्च और देव आदि सभी को उसमें अत्यन्त प्रीति होती है। परन्तु इससे भी अत्यधिक प्रीति बताने के लिये ग्रंथकर्ता ने कहा है कि कोई व्यक्ति नवयुवक हो, संगीतज्ञ हो, सर्वप्रकार से सुखी सम्पन्न हो, भोगी और आरोग्यवान हो; वह अपनी नवोढ़ा-नवयौवना के साथ देव, किन्नर, गांधर्वो के दिव्य आलापयुक्त संगीत में जितना आह्लाद, आनन्द अनुभव करता है, उससे भी अनन्त गुना अधिक राग-प्रीति सम्यक्दृष्टि को जिनेश्वरोक्त वाणी के श्रवण में होती है / सम्यक्दृष्टि जब परमार्थ की विचारणा में चढ़ता है और जिनेश्वरोक्त शास्त्रों का अवगाहन करता है तो वह अपने आप को भूल जाता है। भूख, प्यास, रोग, शोक सभी को वह भूल जाता है / ज्ञान अनुभव की मस्ती में वह इतना आनन्द विभोर हो जाता है कि किन्नरगायन सुनने वाले भोगी का आनन्द उसके सामने तुच्छ है। क्योंकि वीतराग की वाणी में आनंद किसी विरले आसन्नभवी सम्यक्दृष्टि भव्य आत्मा को ही प्राप्त होता है, यही हेतु की विशिष्टता है // 254 // तुच्छं च तुच्छनिलयाप्रतिबद्धं च तद् यतः / गेयं जिनोक्तिस्त्रैलोक्यभोगसंसिद्धिसंगता // 255 // अर्थ : गायन तुच्छ है तथा तुच्छ स्थान विषयक है और जिनेश्वर की वाणी तो तीनों लोकों के भोगों की सिद्धि से युक्त है // 255 // विवेचन : देव, किन्नर, गंधर्व आदि गायकों के आलाप युक्त गायन वस्तुतः विलाप तुल्य है और वे मात्र श्रवणेन्द्रिय-कान को क्षणिक सुख देने वाले हैं / वह सुख भी तो पारमार्थिक नहीं केवल उपचार से माना हुआ है, क्योंकि उसे सुनते हुये एक व्यक्ति को क्षणिकसुख अनुभव होता है, तो दूसरे को वह सुनते ही दुःख अनुभव होता है / इसलिये वह सुख वस्तुतः एकान्तिक नहीं है / वह गायन शृंगाररस पूर्ण होने से इन्द्रियों में विक्रिया पैदा करता है / मद्य की भाँति प्रमाद और नशा पैदा करता है, क्योंकि वे गायन वस्तु का वर्णन करते हैं / जो देह तुच्छ स्थान विषयक है अर्थात् शरीर मल, मूत्र, रक्त, वीर्यादि के गन्दे घर जैसा दुर्गंच्छनीय है, ऐसे स्री के शरीर को कवि लोग सूर्य, चन्द्र, पद्म, कमल आदि उपमा अलंकारों से सुशोभित बनाकर, मनुष्य का आत्मभान भुला देते हैं / परन्तु सच्चा सुख मनुष्य को कभी नहीं मिलता / ऐसे गायन मल-मूत्रादि के घर स्त्री आदि के विषय में रचे हुये पद्य रूप हैं, इसलिये अति तुच्छ है / परन्तु जिनेश्वर परमात्मा द्वारा दिया गया उपदेश तो तीन लोकों के भोगों को सिद्ध करने वाली जो सिद्धि-मोक्ष है उससे युक्त है / अर्थात् सर्व विकल्पों को छोड़कर, एकाग्रचित से, पूर्ण प्रीति और उत्साह से जो वीतराग के