________________ 152 योगबिंदु समझकर, जीवात्मा केवल मोक्षसुख की ही अभिलाषा करती है। निर्वेद - सांसारिक सुखों के प्रति अरुचि, ममत्व का त्याग और वीतराग परमात्मा द्वारा उपदिष्ट उपदेशों में अटूट श्रद्धा रखता है। अनुकम्पा - संसार में प्राणियों के भयंकर दुःखों को देखकर उनके दुःखों को दूर करने की अभिलाषा करता है। आस्तिकता - वीतराग प्रभु ने भव्यात्माओं के हित के लिये जो कल्याण मार्ग बताया है, वही सत्य है ऐसी अटूट श्रद्धा उसके अन्दर पनपती है / इस प्रकार वह सम्यक् दृष्टि जीव उपशम, संवेग निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिकता आदि गुणों से सुशोभित होता हैं / इन गुणों से उसकी आत्मा उत्तरोत्तर शुद्ध होती है / / 252 // शुश्रूषा धर्मरागश्च, गुरु-देवादिपूजनम् / यथाशक्ति विनिर्दिष्टं, लिङ्गमस्य महात्मभिः // 253 // अर्थ : महापुरुषों ने यथाशक्ति शुश्रूषा, धर्मराग, गुरुदेवादि के पूजन को सम्यक् दृष्टि जीव के चिह्न लक्षण बताये हैं // 253 / / विवेचन : सम्यक्दृष्टि जीव को हमेशा वीतराग प्रणीत सत्शास्त्रों को श्रवण करने की प्रबल इच्छा होती है / वह चाहता है कि हमेशा शास्त्रश्रवण करता रहुं / उसे धर्म के प्रति राग होता है। सर्व बाह्य क्रियाओं और धर्मानुष्ठानों को बड़े भावोल्लास पूर्वक करता है। उसे श्रावकव्रत पालने की इच्छा होती है। पंचमहाव्रतधारी, सत्यधर्म का उपदेश देने वाले आचार्य, साधु-साध्वी, गुरुजनादि तथा श्रावक-श्राविका, सम्यक्दर्शनव्रती, भद्रपरिणामी, वृद्ध, ग्लान, तपस्वी, बिमार की सेवा-शुश्रूषा करने की प्रबल भावना होती है / साधर्मिक बंधुओं की सेवा, भक्ति, दान, सम्मान करके उनको सुखी करने में यथाशक्ति प्रयत्नशील रहता है। गुरुजनों की यथाशक्ति भक्ति और वीतराग परमात्मा के मन्दिर में महापूजन, प्रभावना आदि में उत्साह पूर्वक अपनी दानशक्ति को प्रकट करता है। ऐसे गुण सम्यक्दृष्टि जीवों में पाये जाते हैं। ये सब धर्म के चिह्न हैं / सम्यक् दृष्टि के लक्षण हैं / शुश्रूषा का अर्थ श्रवण की इच्छा और सेवाशुश्रुषा भी होता है / गुरुजन. - ज्ञान, वय, और गुणवृद्ध सभी गुरुजन हैं / ग्रंथकार का आशय यह है कि सत्शास्त्र श्रवण की प्रबल इच्छा का होना; धर्म पर पूर्ण प्रीति होना अर्थात् सर्व धार्मिक क्रिया अनुष्ठानों में भावोल्लास का होना; शक्ति को छिपाये बिना सद्गुरुओं की सेवाभक्ति करना और देव-वीतराग परमात्मा के मन्दिर में महापूजनादि कराना, ये सब सम्यक्दृष्टि के लक्षण हैं, ऐसा महापुरुषों ने कहा है // 253 // न किन्नरादिगेयादौ, शुश्रूषा भोगिनस्तथा / यथा जिनोक्तावस्येति, हेतुसामर्थ्यभेदतः // 254 //