________________ योगबिंदु 151 मुक्ताविच्छापि यच्छ्लाघ्या तमःक्षयकरीमता मुक्ति की इच्छा मात्र भी प्रशंसनीय है क्योंकि वह अज्ञान को नाश करने वाली है ऐसा महापुरुषों ने बताया है इसका विस्तार अन्य शास्त्रों में देख लेवें // 250 // अपुनर्बन्धकस्यैवं सम्यग्नीत्योपपद्यते / तत्तत्तन्त्रोक्तमखिलमवस्थाभेदसंश्रयात् // 251 // अर्थ : कपिल सौगतादि के शास्त्र प्रणीत समस्त अनुष्ठान अपुनर्बन्धक को अवस्थाभेद का आश्रय लेने से सम्यक् प्रकार से घट जाते हैं // 251 // विवेचन : अपुनर्बन्धक आत्मा से तात्पर्य है उस जीव से जो अब लम्बे काल तक भवभ्रमण करने वाला नहीं हो; लघु संसारी जीव अपुनर्बन्धक कहा जाता है। अपुनर्बन्धक जीवों की अलगअलग तरतम अवस्थाएँ मानी गई हैं। सभी की विकास स्थिति भिन्न होती है इसलिये अन्य - कपिल और बौद्ध आदि शास्त्रों में मुमुक्षुजन योग्य समस्त अनुष्ठान जो बताये हैं, वे सभी प्रकार के अनुष्ठान अपुनर्बन्धकों की अवस्थाभेद से घटित हो जाते हैं। जैसे एक ही कक्षा में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की सभी की अपनी अलग-अलग योग्यता होती है, इसी प्रकार अपुनर्बन्धक कहलाने वाले आत्माओं में भी तारतम्यभेद की योग्यता होती है इसलिये सभी प्रकार के अनुष्ठान सम्यक् घटित होते हैं / किसको किस अवस्था में कौन सा अनुष्ठान उपकारक हो सकता है, वह विचारणीय है // 251 // स्वतन्त्रनीतितस्त्वेव, ग्रन्थिभेदे तथा सति / सम्यग्दृष्टिर्भवत्युच्चैः, प्रशमादिगुणान्वितः // 252 // अर्थ : स्याद्वाद न्याय से तो ग्रंथीभेद करने पर ही आत्मा उत्कृष्ट प्रशमादि गुणों से युक्त सम्यक् दृष्टि होता है / / 252 // विवेचन : स्वतन्त्र नीति से तात्पर्य है एकान्तवाद के बंधन का त्याग करके स्याद्वाद दृष्टि - अनेक अपेक्षाओं से वस्तुतत्त्व का निरीक्षण करने वाली अनेकान्तनीति / जैनागमों में बताये हुये सिद्धान्तानुसार राग, द्वेष, मोह, माया और अज्ञानता के गाढ़ बंधनों से मजबुत बनी हुई कर्मग्रंथीकर्मरूपी गांठ को अपूर्वकरण द्वारा जब जीवात्मा छिन भिन्न कर देती है, तो वह अनन्तानुबंधी की चौकड़ी को, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, समकितमोहनीय को उपशान्त कर देता है / जब अनन्तानुबंधी कषायादिशान्त हो जाते हैं, तब वह जीव सम्यक् दृष्टि बनता है / सम्यक् दृष्टि बनने पर पूर्व अवस्था से अत्यन्त शक्तिवाले प्रशम-उपशम - जिसमें आत्मा कर्मों के कठिन विपाकों को भोगते हुये भी अन्य निमित्त बने हुये जीवात्माओं के अपराधों को क्षमा कर देता है और अपने कषायों को मन्द करने का प्रयत्न करता है / संवेग - नर देव सम्बंधी भोगों को भी दुःखदायी