________________ 150 योगबिंदु कारण बनती है। महापुरुषों की प्रवृत्ति उपर बताई जैसी उत्तम होती हैं / इसीलिये उसे सानुबंध कहा है, मोक्ष फल देने वाली कहा है // 248 / / अन्तविवेकसम्भूतं, शान्तोदात्तमविप्लुतम् / नाऽग्रोद्भवलताप्रायं, बहिश्शेष्टाधिमुक्तिकम् // 249 // अर्थ : योगाधिकारी का अनुष्ठान कैसा होता है ? ग्रंथकार बताते हैं :- वह (अनुष्ठान) अन्तविवेक से समुत्पन्न, शांत, उदात्त, विप्लवरहित होता है पर वृक्षप्रांत से उत्पन्न हुई लता की भांति नहीं होता और वह (चैत्यवन्दन गुरुवन्दन आदि) बाह्य क्रिया में मुक्ति की श्रद्धा वाला होता है॥२४९॥ विवेचन : योगाधिकारी आत्मा, तप, जप, देवपूजा, गुरूपूजा आदि अनुष्ठान सामान्य लोगों की भाति देखा-देखी नहीं करता और न ही किसी प्रकार के स्वर्ग, सम्पत्ति, लोकेषणा की कामना से ही करता है / उसका अनुष्ठान अन्तविवेक से उत्पन्न होता है, गुजराती में जिसे "मांहि थी उगे छे" कहते हैं / वह आन्तरिक जागृति से परिपूर्ण होता है / इसीलिये उसकी अन्दर की सर्ववृत्तियाँ शांत हो जाती है / कषाय मन्द पड़ जाते हैं अथवा सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं, और क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि महान् उदार गुण प्रकट होते हैं। किसी प्रकार का भी लोभ का विप्लव-उपद्रव नहीं रहता। वृक्ष के तने में उगी हुई लता दूसरी लता से सम्बंध नहीं रखती; अन्य सम्बंध से मुक्त रहती है ऐसा इस अनुष्ठान में नहीं होता क्योंकि इस अनुष्ठान को सानुबंध कहा है / वह उत्तरोत्तर श्रेष्ठ अनुष्ठानों के साथ जोड़ता है और बाह्य चेष्टा - चैत्यवन्दन, गुरुवन्दन, तप, जप, सामायिक, प्रतिक्रमण, पूजा आदि बाह्य क्रिया में विवेकयुक्त ज्ञानमयी श्रद्धा होती है। उनकी बाह्य क्रिया-अनुष्ठान आन्तर श्रद्धा का पुष्टावलम्बन बनता है और मुनि के लिये उपकारक होता है // 249 // ____ विषय, स्वरूप और अनुबंधशुद्ध इन तीन प्रकार के अनुष्ठानों को बताकर, तीनों की संमति बताते हैं। इष्यते चैतदप्यत्र, विषयोपाधिसङ्गतम् / निदर्शितमिदं तावत्, पूर्वमत्रैव लेशतः // 250 // अर्थ : यहाँ (महापुरुषों की) ऐसी मान्यता है कि विषयशुद्ध अनुष्ठान उपचार से योग का अंग है / यह बात जो पूर्व में संक्षेप से कही है वह युक्ति-युक्त है // 250 // विवेचन : इस शास्त्र में योग स्वरूप का विचार करते हुये तीन प्रकार के अनुष्ठानों में जब विषय शुद्ध अनुष्ठान को उपचार से योग का अंग माना है तो फिर स्वरूपसिद्ध और अनुबंध शुद्ध अनुष्ठान का स्वीकार क्यों नहीं करना, अर्थात् होगा ही / ऐसा मानना उचित भी है क्योंकि पूर्व में योगबिन्दु शास्त्र में संक्षेप से बताया है कि :