________________ योगबिंदु 149 करता है / महापुरुषों की प्रवृत्ति का मूल उस प्रवृत्ति के उपदेशक तीर्थंकरादि के स्मरण से व्याप्त चित्तरूपी रत्न बताया है। जिसका चित्त प्रभु स्मरण से सभर है, उससे अच्छा और ऊँचा क्या हो सकता है ? प्रभुस्मरण से सभर चित्त उस प्रवृत्ति का अलंकार बताया है / ऐसे चित्त से जो भी प्रवृत्ति होगी साध्य को ही सिद्ध करेगी। फिर बताया है साध्य सिद्ध होने पर भी, विविध सिद्धियों की प्राप्ति होने पर भी, योगाधिकारी की मुखमुद्रा गम्भीर रहती है। किसी प्रकार की भी चंचलता या उछलकूद नहीं होती और वह अपने आप में प्रसन्न होता है / वह आत्मप्रसन्नता में निमग्न होता है / कहा भी है कि अधजल गगरी छलकत जाय, जो पूर्ण है जो सच्चा ज्ञानी है वह उतना ही गम्भीर स्वयंभूरमण समुद्र की भांति गम्भीर होता है। वाचक यशोविजयजी ने शांतिनाथजी के स्तवन में सुन्दर गाया है : जिनहि पाया तिनहि छिपाया, न कहे कोउ के कान में ताली लागी जब अनुभवकी, तब जाने कोउ सान में / हम मगन भये प्रभु ध्यान में योग के अनाधिकारी साधक ही थोड़ी सी सिद्धि प्राप्त होने पर अभिमानरूपी हाथी के ऊपर चढ़ जाते हैं। अपना प्रभाव दूसरों पर डालने के लिये और अर्थ और काम के लिये उसका उपयोग करते हैं और उछलकूद करते हैं / परन्तु जो सद्योग को अधिकारी आत्माएँ है उनकी मानसिक स्थिति बड़ी उदात्त और ऊँची होती है। वे तो जरूरत पड़ने पर ही मात्र धर्म की प्रभावना के लिये कभी-कभार उनका उपयोग करते हैं, परन्तु स्वार्थ या यशकीर्ति से तो वे सदा दूर रहते हैं // 247 // फलवद् द्रुमसद्बीजप्ररोहसदृशं तथा / साध्वनुष्ठानमित्युक्तं, सानुबन्धं महर्षिभिः // 248 // अर्थ : फलवान् वृक्ष के सद्बीज के अंकुर सदृश शुद्धानुष्ठान को महर्षियों ने सानुबंध वाला कहा है // 248 // विवेचन : महर्षियों ने बताया है जैसे फलों से लदे हुये आम अथवा वटवृक्ष के सद्बीज (जिन बीजों में फल देने की सत्ता विद्यमान है) के अंकुर अवश्यमेव फल देते हैं / इसी प्रकार तीर्थंकर वीतराग की वाणी के भाषावर्गणा के पुद्गल जब योगाधिकारी के हृदयपटल पर पड़ते हैं, तो उसके फलस्वरूप सम्यक्त्वदर्शन, कषायविजय, उपशमभाव, श्रेष्ठ व्रत, पच्चखाण, तप, जप, ध्यान, आदि शुद्ध अनुष्ठान जो यम नियम आदि स्वरूप में है प्रकट होते हैं / और ऐसा उनका अनुष्ठान सानुबंध वाला कहा है अर्थात् मोक्षरूपी सिद्धि से युक्त कहा है / योगाधिकारी का शुद्ध अनुष्ठान महापुण्य के योग से उत्तरोत्तर प्रथम अनुष्ठान से द्वितीय और द्वितीय से तृतीय उच्च कोटि अनुष्ठान पर ले आता है। ऐसी एक दूसरे का उपादान कारण बनने वाली सिद्धियां उत्तम मोक्षफल का अनुबंध