________________ 148 योगबिंदु विवेचन : मयूर का दृष्टान्त स्पष्ट करता है कि मयूर की चित्र-विचित्रता का बीज, सत्तारूप से अण्डे में रहा हुआ है, तभी वे रंग मयूर में बड़े होने पर प्रकट होते हैं, क्योंकि "नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः" जिसकी सत्ता होती है वही सत्रूप बाहर आता है, लेकिन जिसकी सत्ता ही नहीं वह कभी विद्यमान नहीं हो सकता / इसी प्रकार योग के अधिकारी आत्माओं में उत्तरकाल में अभिव्यक्त होने वाले गुणसमूह के बीज गर्भावस्था में ही रहे हुये होते हैं। इसी कारण उनकी योगमार्ग में प्रवृत्ति होती है। जो भविष्य में महान् बनने वाले हैं, उनके लक्षण गर्भ में ही प्रकट होने लगते हैं, क्योंकि गुणसम्पन्नता के बीज उनमें सत्तारूप से रहे हुये है। महापुरुषों के जीव माता के गर्भ में आते ही, उनकी महानता के आन्दोलन आस-पास के वातावरण को आन्दोलित कर देते हैं / महापुरुषों के आन्दोलन जगत में सद्धर्म का प्रचार करते हैं // 245 / / प्रवृत्तिरपि चैतेषां, धैर्यात् सर्वत्र वस्तुनि / अपायपरिहारेण, दीर्घालोचनसङ्गता // 246 // अर्थ : इनकी (योगाधिकारी महापुरुषों की) प्रवृत्ति भी सर्व वस्तुओं में (धर्म और अर्थ आदि क्षेत्रों में) भावी विघ्नों को दूर करके, धैर्यपूर्वक कार्य के परिणाम को देखने वाली दीर्घदृष्टि से होती है // 246 / / विवेचन : योगधर्म के अधिकारी महापुरुष धर्मक्षेत्र में अथवा आर्थिक क्षेत्र व्यापारादि सर्व क्षेत्रों में जो भी प्रवृत्ति करते हैं, वह सब खूब धीरजपूर्वक दूसरों से क्षुभित हुये बिना, स्थिरचित्त से करते हैं तथा भावी विघ्नों को दूर करके, सूक्ष्मबुद्धि और दीर्घ दृष्टि से कार्य के परिणाम पर विचार करके करते हैं / इसीलिये उनकी प्रवृत्ति कभी असफल नहीं होती, सर्वत्र सफल ही होती है // 246 // महापुरुषों की प्रवृत्ति कैसी है ? साध्यसिद्ध होने पर भी उनकी मुखमुद्रा कैसी रहती है उसी के विशेषण दिये हैं कि : तत्प्रणेतृसमाक्रान्तचित्तरत्नविभूषणा / साध्यसिद्धावनौत्सुक्यगाम्भीर्यस्तिमितानना // 247 // अर्थ : उन योग स्वरूप के उपदेशकों की प्रवृत्ति चित्र रूप रत्न विभूषण से शोभित होती है। योग की प्रवृत्ति में व्याप्त योगी साध्य की सिद्धि होने पर भी उत्सुकता दिखाते नहीं है, पर वे उस समय स्थिर समुद्र की तरह गंभीर मुखमुद्रा वाले होते हैं // 247|| विवेचन : प्रवृत्ति मात्र का मूलस्रोत मन है जैसी मानसिक स्थिति होगी वैसी शुभ या अशुभ प्रवृत्ति होगी। तो यहाँ महापुरुषों की प्रवृत्ति के लिये जो विशेषण दिया है, वह भी इसी को पुष्ट